chand par kavita – चाँद पर कविता Poem on Moon in Hindi
Chand Par Kavita Hindi me – Poem on Moon in Hindi – चाँद पर कविता
-
रे चन्द्रमा
- रे चन्द्रमा! तुम क्यों धरा को विस्मित करते हो?
मौन शांत सागर को विचलित करते हो,
तुम जो इन तरंगों को आकर्षित करते हो,
पूर्णिमा की पूरी छटा में,
अंधियारों को विकृत करते हो।
रे चन्द्रमा तुम क्यों धरा को विस्मित करते हो?
तेरे इस परिक्रमण का औचित्य क्या है?
तेरे इस भ्रमण का आदि क्या? अंत क्या है?
क्या तुम निकटस्थ जीवन को देखते हो?
धरती से तेरा सम्बन्ध क्या है?
ओ मायावी मयंक!
तुम क्यों अपने रहस्यों से ब्रह्मांड को विस्तृत करते हो?
रे चन्द्रमा! तुम क्यों धरा को विस्मित करते हो?
तुम दृश्य हो दृष्टांत हो,
अनंत इस आकाश में सीमांत हो,
धरती के हो सबसे समीप,
फिरभी विरह का वृतांत हो।
ओ कलाधर! तुम क्यों समय को इंगित करते हो?
रे चन्द्रमा! तुम क्यों धरा को विस्मित करते हो?
पृथ्वी से तेरा मोह कैसा है?
क्यों इस दूरी को कायम रखते हो?
क्यों हो इतने धैर्यवान?
किस कर्तव्य का निर्वहन करते हो?
क्यों हो कौतूहल का केंद्र तुम?
क्यों जिज्ञासाओं को विकसित करते हो?
रे चन्द्रमा! तुम क्यों धरा को विस्मित करते हो?
– Jaya Pandey
-
ये चन्द्रमा
समग्र है कोई इस शून्य से आकाश के लिए,
ये चन्द्रमा सशक्त है तिमिर के विनाश के लिए।
खड़ा है जो अंधकार के विरुद्ध,
कर रहा है तम के प्रहार को अवरुद्ध,
इन प्रबल मेघों के बीच भी शीतल शांत है,
वह ‘रिक्त व्योम’ में भी ‘नितांत’ है।
क्या यह रक्षक है धरा का अनादि काल से?
या कोई योद्धा जो लड़ रहा है प्रकाश के लिए?
ये चन्द्रमा सशक्त है तिमिर के विनाश के लिए।
है कोई जो रात्रियों को सरल और विनीत करता है,
अपनी मद्धिम ज्योति से जीवन को नवनीत करता है,
पूर्णिमा की लालिमा में लिप्त हैं जीवनराग,
यूँ ही नहीं अमावस धरती को भयभीत करता है।
सूर्य सा तेज नहीं, पर सूर्य का ही तेज है समाहित उसमें,
प्रण उसका है शायद अंधकार के सर्वनाश के लिए,
यह चन्द्रमा सशक्त है तिमिर के विनाश के लिए।
– Jaya Pandey
-
ऐ चाँद
- ऐ चांद, तुम कितने खूबसूरत हो!
सदा रहते हो अपनी प्रिय चांदनी के संग,
घूमते रहते हो प्रिय सितारों के साथ।
सच कहूं तो मुझे तुमसे कभी-कभी इर्ष्या होती है,
कि चांदनी तुम्हें कभी उलाहना नहीं देती
अमावस का,
या कि फिर अंकशायिनी हो उठती है पूनम में।
ऐ चांद, तुम कितने खूबसूरत हो!
सदा निद्र्वन्द्व विचरते रहते हो नभ में,
ना ट्रैफिक की चिन्ता, ना पुलिस का डर,
ना भौं-भौं, पौं-पौं, न धुंएं का कहर,
कौन-सा फ्यूल यूज करते हो भाई।
ऐ चांद, तुम कितने खूबसूरत हो!
क्या तुम भी कभी उलाहना देते हो,
किसी को कि उसमें,
कितनी मात्रा में खोट और दाग हैं कितने?
कभी रोटी के लिए चांद लिखता हूं
कभी रोटी को चांद कहता हूं,
तुम तो समझ भी नहीं सकते मजबूरियां
तुम्हारे लिए मैं क्या-क्या कहता हूं।
ऐ चांद, तुम कितने खूबसूरत हो!
इतना अमरत झराते हो शरद की रात पूनम में,
मगर खुद क्यों ग्रस लिए जाते हो हर माह मावस में?
ऐ चांद, तुम कितने खूबसूरत हो!
– सूर्यकान्त
.