( List of Poems of Gopal Das Neeraj given in this post )
1. है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
2. अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि
3. मगर निठुर न तुम रुके
4. जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला

गोपाल दास नीरज की कविताएँ
.1. है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
है बहुत अंधियार अब सूरज निकलना चाहिए
जिस तरह से भी हो ये मौसम बदलना चाहिए
रोज़ जो चेहरे बदलते है लिबासों की तरह
अब जनाज़ा ज़ोर से उनका निकलना चाहिए
अब भी कुछ लोगो ने बेची है न अपनी आत्मा
ये पतन का सिलसिला कुछ और चलना चाहिए
फूल बन कर जो जिया वो यहाँ मसला गया
जीस्त को फ़ौलाद के साँचे में ढलना चाहिए
छिनता हो जब तुम्हारा हक़ कोई उस वक़्त तो
आँख से आँसू नहीं शोला निकलना चाहिए
दिल जवां, सपने जवाँ, मौसम जवाँ, शब् भी जवाँ
तुझको मुझसे इस समय सूने में मिलना चाहिए
– गोपाल दास नीरज
Gopal Das Neeraj Poems in Hindi
.2. अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि!
चाहता था जब हृदय बनना तुम्हारा ही पुजारी,
छीनकर सर्वस्व मेरा तब कहा तुमने भिखारी,
आँसुओं से रात दिन मैंने चरण धोये तुम्हारे,
पर न भीगी एक क्षण भी चिर निठुर चितवन तुम्हारी,
जब तरस कर आज पूजा-भावना ही मर चुकी है,
तुम चलीं मुझको दिखाने भावमय संसार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
भावना ही जब नहीं तो व्यर्थ पूजन और अर्चन,
व्यर्थ है फिर देवता भी, व्यर्थ फिर मन का समर्पण,
सत्य तो यह है कि जग में पूज्य केवल भावना ही,
देवता तो भावना की तृप्ति का बस एक साधन,
तृप्ति का वरदान दोनों के परे जो-वह समय है,
जब समय ही वह न तो फिर व्यर्थ सब आधार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
अब मचलते हैं न नयनों में कभी रंगीन सपने,
हैं गये भर से थे जो हृदय में घाव तुमने,
कल्पना में अब परी बनकर उतर पाती नहीं तुम,
पास जो थे हैं स्वयं तुमने मिटाये चिह्न अपने,
दग्ध मन में जब तुम्हारी याद ही बाक़ी न कोई,
फिर कहाँ से मैं करूँ आरम्भ यह व्यापार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
अश्रु-सी है आज तिरती याद उस दिन की नजर में,
थी पड़ी जब नाव अपनी काल तूफ़ानी भँवर में,
कूल पर तब हो खड़ीं तुम व्यंग मुझ पर कर रही थीं,
पा सका था पार मैं खुद डूबकर सागर-लहर में,
हर लहर ही आज जब लगने लगी है पार मुझको,
तुम चलीं देने मुझे तब एक जड़ पतवार प्रेयसि !
अब तुम्हारा प्यार भी मुझको नहीं स्वीकार प्रेयसि !
– गोपाल दास नीरज
.3. मगर निठुर न तुम रुके
मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके!
पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन,
पुकारती रही सुहाग दीप की किरन-किरन,
निशा-दिशा, मिलन-विरह विदग्ध टेरते रहे,
कराहती रही सलज्ज सेज की शिकन शिकन,
असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे,
मगर निठुर न तुम रुके!
पकड़ चरण लिपट गए अनेक अश्रु धूल से,
गुंथे सुवेश केश में अशेष स्वप्न फूल से,
अनाम कामना शरीर छांह बन चली गई,
गया हृदय सदय बंधा बिंधा चपल दुकूल से,
बिलख-बिलख जला शलभ समान रूप अधजला,
मगर निठुर न तुम रुके!
विफल हुई समस्त साधना अनादि अर्चना,
असत्य सृष्टि की कथा, असत्य स्वप्न कल्पना,
मिलन बना विरह, अकाल मृत्यु चेतना बनी,
अमृत हुआ गरल, भिखारिणी अलभ्य भावना,
सुहाग-शीश-फूल टूट धूल में गिरा मुरझ-
मगर निठुर न तुम रुके!
न तुम रुके, रुके न स्वप्न रूप-रात्रि-गेह में,
न गीत-दीप जल सके अजस्र-अश्रु-मेंह में,
धुआँ धुआँ हुआ गगन, धरा बनी ज्वलित चिता,
अंगार सा जला प्रणय अनंग-अंक-देह में,
मरण-विलास-रास-प्राण-कूल पर रचा उठा,
मगर निठुर न तुम रुके!
आकाश में चांद अब, न नींद रात में रही,
न साँझ में शरम, प्रभा न अब प्रभात में रही,
न फूल में सुगन्ध, पात में न स्वप्न नीड़ के,
संदेश की न बात वह वसंत-वात में रही,
हठी असह्य सौत यामिनी बनी तनी रही-
मगर निठुर न तुम रुके!
– गोपाल दास नीरज
.4. जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला
जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला
मेरे स्वागत को हर इक जेब से ख़ंजर निकला
मेरे होंटों पे दुआ उस की ज़बाँ पे गाली
जिस के अंदर जो छुपा था वही बाहर निकला
ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा
मेरा सब रूप वो मिट्टी का धरोहर निकला
रूखी रोटी भी सदा बाँट के जिस ने खाई
वो भिकारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला
क्या अजब है यही इंसान का दिल भी ‘नीरज’
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला
– Gopal Das Neeraj Kavita
हमें उम्मीद है कि गोपाल दास नीरज के कविताओं की प्रस्तुति आपको पसंद आई होगी.