Poem On Himalaya in Hindi Language – हिमालय पर्वत पर कविताएँ
Poem On Himalaya in Hindi Language – हिंदी में हिमालय पर कविता
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1st Poem: हिमालय
चढ़ लूँ उस छोर पर
जहा से शूरू है अस्तित्व तुम्हारा,
इंद्रधनुषी रंग देखूँ
या बर्फ़ो की माला,
तने हो यूँ,
अडिग हो, अटल हो
जीवन के किस पहेली के हल हो ,
क्या ये सूनापन ही
तम्हारी एकाग्रता है ?
इर्द-गिर्द मंडरा रही
मेघों की छटा है,
बाहर से निष्क्रिय
अंदर से क्रियाशील हो,
शीतल हो या शलील हो ?
रुक जाऊँ वहां,
जहाँ तम्हारी नीव हैं,
पाषाणों से लदे हो,
नदियों की पहल हो,
रक्षक हो हिन्द के,
या क्षत्रिय हो तुम ?
वनों की शोभा हो,
पशु-पंछियों की आभा हो,
यात्रियों का पड़ाव हो,
नदियों का बहाव है,
हो वसुधा के श्रृंगार,
नभ चुंबी हो,
परिश्रम की कुंजी हो,
हो तुम मानवता
के लिए अनंत उपहार,
फिर भी क्यूँ है
सूनापन ?
क्या नभ को छूं
लेने का घमंड है ?
या तुम कड़वे किस्सों
के खंड हो ?
विशेषताओं से परिपूर्ण,
पर हर ओर से
अभी भी शून्य हो तुम,
ऐ हिमालय!
पर्वतों के राजा
क्या मानव ने कर
दिया तेरा
यह हश्र हैं ?
आज बुलंद होकर
भी इतना
क्यों तू बेबस हैं ?
– प्रियंका प्रियंवदा….
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2nd Poem Khada Himaalya: हिमालय
युग युग से है अपने पथ पर
देखो कैसा खड़ा हिमालय!
डिगता कभी न अपने प्रण से
रहता प्रण पर अड़ा हिमालय!
जो जो भी बाधायें आईं
उन सब से ही लड़ा हिमालय,
इसीलिए तो दुनिया भर में
हुआ सभी से बड़ा हिमालय!
अगर न करता काम कभी कुछ
रहता हरदम पड़ा हिमालय
तो भारत के शीश चमकता
नहीं मुकुट–सा जड़ा हिमालय!
खड़ा हिमालय बता रहा है
डरो न आँधी पानी में,
खड़े रहो अपने पथ पर
सब कठिनाई तूफानी में!
डिगो न अपने प्रण से तो ––
सब कुछ पा सकते हो प्यारे!
तुम भी ऊँचे हो सकते हो
छू सकते नभ के तारे!!
अचल रहा जो अपने पथ पर
लाख मुसीबत आने में,
मिली सफलता जग में उसको
जीने में मर जाने में!
– सोहनलाल द्विवेदी
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3rd Poem: गिरिराज
यह है भारत का शुभ्र मुकुट
यह है भारत का उच्च भाल,
सामने अचल जो खड़ा हुआ
हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल!
कितना उज्ज्वल, कितना शीतल
कितना सुन्दर इसका स्वरूप?
है चूम रहा गगनांगन को
इसका उन्नत मस्तक अनूप!
है मानसरोवर यहीं कहीं
जिसमें मोती चुगते मराल,
हैं यहीं कहीं कैलास शिखर
जिसमें रहते शंकर कृपाल!
युग युग से यह है अचल खड़ा
बनकर स्वदेश का शुभ्र छत्र!
इसके अँचल में बहती हैं
गंगा सजकर नवफूल पत्र!
इस जगती में जितने गिरि हैं
सब झुक करते इसको प्रणाम,
गिरिराज यही, नगराज यही
जननी का गौरव गर्व–धाम!
इस पार हमारा भारत है,
उस पार चीन–जापान देश
मध्यस्थ खड़ा है दोनों में
एशिया खंड का यह नगेश!
– सोहनलाल द्विवेदी
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4th Poem : Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavita Himalaya
हिमालय
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
साकार, दिव्य, गौरव विराट,
पौरुष के पूंजीभूत ज्वाल !
मेरी जननी के हिम-किरीट !
मेरे भारत के दिव्य भाल !
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त,
युग-युग शुचि, गर्वोन्नत, महान,
निस्सीम व्योम में तान रहा
युग से किस महिमा का वितान ?
कैसी अखंड यह चिर समाधि ?
यतिवर ! कैसा यह अमिट ध्यान ?
तू महाशून्य में खोज रहा
किस जटिल समस्या का निदान ?
उलझन का कैसा विषम जाल ?
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
ओ, मौन तपस्या-लीन यती !
पल भर को तो कर दृगुन्मेश !
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश.
सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,
गंगा, यमुना की अमिय धार
जिस पुण्यभूमि की ओर बही
तेरी विगलित करुणा उदार,
जिस के द्वारों पर खड़ा क्रांत
सीमापति ! तू ने की पुकार,
‘पद-दलित इसे करना पीछे
पहले ले मेरा सिर उतार’
उस पुण्यभूमि पर आज तपी
रे, आन पड़ा संकट कराल
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे
डंस रहे चतुर्दिक विविध व्याल
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
कितनी मणियाँ लुट गईं ? मिटा
कितना मेरा वैभव अशेष !
तू ध्यानमग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश !
किन द्रौपदियों के बाल खुले ?
किन-किन कलियों का अंत हुआ ?
कह ह्रदय खोल चित्तौर ! यहाँ
कितने दिन ज्वाल वसंत हुआ ?
पूछे सिकता-कण से हिमपति,
तेरा वह राजस्थान कहाँ ?
वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिए
फिरने वाला बलवान कहाँ ?
तू पूछ अवध से राम कहाँ ?
वृंदा ! बोलो घनश्याम कहाँ ?
ओ मगध ! कहाँ मेरे अशोक ?
वह चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ ?
पैरों पर ही है पड़ी हुई
मिथिला भिखारिनी सुकुमारी
तू पूछ कहाँ इस ने खोयीं
अपनी अनंत निधियां सारी ?
री कपिलवस्तु ! कह, बुद्धदेव
के वे मंगल उपदेश कहाँ ?
तिब्बत, ईरान, जापान, चीन
तक गए हुए सन्देश कहाँ ?
वैशाली के भग्नावशेष से
पूछ लिच्छवी-शान कहाँ ?
ओ री उदास गण्डकी ! बता
विद्यापति कवि के गान कहाँ ?
तू तरुण देश से पूछ अरे,
गूंजा यह कैसा ध्वंस-राग ?
अम्बुधि-अंतस्तल-बीच छिपी
यह सुलग रही है कौन आग ?
प्राची के प्रांगण बीच देख,
जल रहा स्वर्ण-युग-अग्नि-ज्वाल
तू सिंहनाद कर जाग तपी !
मेरे नगपति ! मेरे विशाल !
रे रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उन को स्वर्ग धीर,
पर फिरा हमें गाण्डीव-गदा
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर !
कह दे शंकर से आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार
सारे भारत में गूँज उठे
‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार
ले अंगड़ाई, उठ, हिले धरा,
कर निज विराट स्वर में निनाद,
तू शैलराट ! हुंकार भरे
फट जाए कुहा भागे प्रमाद !
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
रे तपी ! आज तप का न काल
नव-युग-शंखध्वनि जगा रही
तू जाग, जाग, मेरे विशाल !!
– Ramdhari Singh Dinkar
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