Poem On Kite in Hindi पतंग पर हिन्दी कविता lines on patang kavita bachchon ke liye :

पतंग पर हिन्दी कविता  – Poem On Kite in Hindi
पतंग पर हिन्दी कविता - Poem On Kite in Hindi Language

पतंग पर हिन्दी कविता Poem On Kite in Hindi Language

  • उड़ती पतंग

    वो उड़ती पतंग तो देखो,
    खुले आसमान में बेखबर,
    आवारा अल्हड़,
    कभी इधर कभी उधर,
    उसे क्या खबर,
    कि उसके आसमान के परे,
    आसमान कई और भी हैं,
    उस जैसे कई और भी हैं,
    लेकिन उसे इसकी फिक्र भी कहाँ,
    उसे तो बस उड़ना है,
    हवाओं के साथ,
    जाना है, बादलों के यहाँ
    उसे क्या पता, उसकी मंज़िल कहाँ।
    फिर एक डोर भी है,
    उनती रंगीन नहीं,
    आसमान के रंग में ही रंगी
    उस पतंग को टांगे, उस पर ही टंगी
    उसे भी उड़ना है,
    लेकिन पतंग के बगैर नहीं,
    इसलिए बंधी है,
    पतंग में खुद को देखती,
    मुस्कुराती हुई।
    उसका सहारा बन,
    खुद पर इठलाती हुई,
    वो भी बेखबर,
    कि दायरें हैं उसके भी।
    वो पतंग भी बेखबर,
    उड़ता हीं जाए,
    कोई खींचे जो उसे,
    और लहराए,
    बादलों से खेले, उनसे टकराये,
    तूफानों में भी फँस
    बाहर आ इतराए,
    बेखबर है फिर, बारिश से भी,
    उसे मालूम ही नहीं,
    बादल उसके साथ तो हैं,
    लेकिन साथी नहीं।
    कोई साथ भी है,
    पर साथ नहीं,
    दूर खड़ा कहीं,
    थामे उस पतंग की डोर,
    कभी खिंचता,
    कभी ढील देता,
    पतंग में खुद को वो भी देखता,
    कि काश उसका भी एक आसमान हो,
    कोई डोर थामे उसे भी,
    वो भी लहराये बादलों में,
    हवाओं के साथ,
    पर उड़ नहीं सकता, वो पतंग नहीं।
    जो पतंग है वो,
    चला था यहीं से,
    जाने को कहाँ, मालूम नहीं,
    बस उड़ता रहा, चढ़ता रहा,
    हर पल नयी उड़ान लिए,
    ना घर की फ़िक्र,
    न मंजिल की टोह,
    न गैरों का डर,
    न अपनों का मोह।
    दायरे तो थे,
    उस डोर के, आसमान के,
    वो रंगीला तो आज़ाद था,
    खुद के ख़यालों में ही।
    उड़ता ही गया वो,
    उचाईयों की ओर,
    आयी जो फिर आखरी छोर,
    टीकी रही वो खिंचती डोर,
    बुलाया नहीं उसे अपनी ओर,
    वो साथ गई, खुद को तोड़।
    वो फिर से उड़ा, बेखबर सा ही,
    आज़ाद, और भी,
    किसी और मंज़िल की ओर,
    गिरता हुआ, तैरता हुआ,
    दूर किसी और आसमान में,
    पर ये उड़ान आख़िरी नहीं,
    उड़ेगा फिर से, लिए नई डोर।
    – विशाल शाहदेव

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