Rabindranath Tagore Poems in Hindi – रवीन्द्रनाथ टैगोर कविता
रविन्द्रनाथ टैगोर की कविता
- पिंजरे की चिड़िया..
पिंजरे की चिड़िया थी सोने के पिंजरे में
वन कि चिड़िया थी वन में
एक दिन हुआ दोनों का सामना
क्या था विधाता के मन में
वन की चिड़िया कहे सुन पिंजरे की चिड़िया रे
वन में उड़ें दोनों मिलकर
पिंजरे की चिड़िया कहे वन की चिड़िया रे
पिंजरे में रहना बड़ा सुखकर
वन की चिड़िया कहे ना…
मैं पिंजरे में क़ैद रहूँ क्योंकर
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
निकलूँ मैं कैसे पिंजरा तोड़कर
वन की चिड़िया गाए पिंजरे के बाहर बैठे
वन के मनोहर गीत
पिंजरे की चिड़िया गाए रटाए हुए जितने
दोहा और कविता के रीत
वन की चिड़िया कहे पिंजरे की चिड़िया से
गाओ तुम भी वनगीत
पिंजरे की चिड़िया कहे सुन वन की चिड़िया रे
कुछ दोहे तुम भी लो सीख
वन की चिड़िया कहे ना ….
तेरे सिखाए गीत मैं ना गाऊँ
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय!
मैं कैसे वनगीत गाऊँ
वन की चिड़िया कहे नभ का रंग है नीला
उड़ने में कहीं नहीं है बाधा
पिंजरे की चिड़िया कहे पिंजरा है सुरक्षित
रहना है सुखकर ज़्यादा
वन की चिड़िया कहे अपने को खोल दो
बादल के बीच, फिर देखो
पिंजरे की चिड़िया कहे अपने को बाँधकर
कोने में बैठो, फिर देखो
वन की चिड़िया कहे ना…
ऐसे मैं उड़ पाऊँ ना रे
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
बैठूँ बादल में मैं कहाँ रे
ऐसे ही दोनों पाखी बातें करें रे मन की
पास फिर भी ना आ पाए रे
पिंजरे के अन्दर से स्पर्श करे रे मुख से
नीरव आँखे सब कुछ कहें रे
दोनों ही एक दूजे को समझ ना पाएँ रे
ना ख़ुद समझा पाएँ रे
दोनों अकेले ही पंख फड़फड़ाएँ
कातर कहे पास आओ रे
वन की चिड़िया कहे ना….
पिंजरे का द्वार हो जाएगा रुद्ध
पिंजरे की चिड़िया कहे हाय
मुझमे शक्ति नही है उडूँ ख़ुद
- जन्मकथा
” बच्चे ने पूछा माँ से , मैं कहाँ से आया माँ ? “
माँ ने कहा, ” तुम मेरे जीवन के हर पल के संगी साथी हो !”
जब मैं स्वयं शिशु थी, खेलती थी गुडिया के संग , तब भी,
और जब शिवजी की पूजा किया करती थी तब भी,
आंसू और मुस्कान के बीच बालक को ,
कसकर, छाती से लिपटाए हुए , माँ ने कहा ,
” जब मैंने देवता पूजे, उस वेदिका पर तुम्ही आसीन थे ,
मेरे प्रेम , इच्छा और आशाओं में भी तुम्ही तो थे !
और नानी माँ और अम्मा की भावनाओं में भी, तुम्ही थे !
ना जाने कितने समय से तुम छिपे रहे !
हमारी कुलदेवी की पवित्र मूर्ति में ,
हमारे पुरखो की पुरानी हवेली मेँ तुम छिपे रहे !
जब मेरा यौवन पूर्ण पुष्प सा खिल उठा था,
तुम उसकी मदहोश करनेवाली मधु गँध थे !
मेरे हर अंग प्रत्यंग में तुम बसे हुए थे
तुम्ही में हरेक देवता बिराजे हुए थे
तुम, सर्वथा नवीन व प्राचीन हो !
उगते रवि की उम्र है तुम्हारी भी,
आनंद के महासिंधु की लहर पे सवार,
ब्रह्माण्ड के चिरंतन स्वप्न से ,
तुम अवतरित होकर आए थे।
अनिमेष द्रष्टि से देखकर भी
एक अद्भुत रहस्य रहे तुम !
जो मेरे होकर भी समस्त के हो,
एक आलिंगन में बध्ध , सम्बन्ध ,
मेरे अपने शिशु , आए इस जग में,
इसी कारण मैं , व्यग्र हो, रो पड़ती हूँ,
जब, तुम मुझ से, दूर हो जाते हो…
कि कहीँ, जो समष्टि का है
उसे खो ना दूँ कहीँ !
कैसे सहेज बाँध रखूँ उसे ?
किस तिलिस्मी धागे से ?
- करता जो प्रीत
दिन पर दिन चले गए,पथ के किनारे
गीतों पर गीत,अरे, रहता पसारे ।।
बीतती नहीं बेला, सुर मैं उठाता ।
जोड़-जोड़ सपनों से उनको मैं गाता ।।
दिन पर दिन जाते मैं बैठा एकाकी ।
जोह रहा बाट, अभी मिलना तो बाकी ।।
चाहो क्या,रुकूँ नहीं, रहूँ सदा गाता ।
करता जो प्रीत, अरे, व्यथा वही पाता ।। - मेरे प्यार की ख़ुशबू
मेरे प्यार की ख़ुशबू
वसंत के फूलों-सी
चारों ओर उठ रही है।
यह पुरानी धुनों की
याद दिला रही है
अचानक मेरे हृदय में
इच्छाओं की हरी पत्तियाँ
उगने लगी हैं
मेरा प्यार पास नहीं है
पर उसके स्पर्श मेरे केशों पर हैं
और उसकी आवाज़ अप्रैल के
सुहावने मैदानों से फुसफुसाती आ रही है ।
उसकी एकटक निगाह यहाँ के
आसमानों से मुझे देख रही है
पर उसकी आँखें कहाँ हैं
उसके चुंबन हवाओं में हैं
पर उसके होंठ कहाँ हैं …
- चुप-चुप रहना सखी
चुप-चुप रहना सखी, चुप-चुप ही रहना,
काँटा वो प्रेम का, छाती में बींध उसे रखना
तुमको है मिली सुधा, मिटी नहीं अब तक
उसकी क्षुधा, भर दोगी उसमें क्या विष !
जलन अरे जिसकी सब बेधेगी मर्म,
उसे खींच बाहर क्यों रखना !! - प्यार में और कुछ नहीं
अगर प्यार में और कुछ नहीं
केवल दर्द है फिर क्यों है यह प्यार ?
कैसी मूर्खता है यह
कि चूँकि हमने उसे अपना दिल दे दिया
इसलिए उसके दिल पर
दावा बनता है,हमारा भी
रक्त में जलती इच्छाओं और आँखों में
चमकते पागलपन के साथ
मरूथलों का यह बारंबार चक्कर क्यों ?
दुनिया में और कोई आकर्षण नहीं उसके लिए
उसकी तरह मन का मालिक कौन है;
वसंत की मीठी हवाएँ उसके लिए हैं;
फूल, पंक्षियों का कलरव सब कुछ
उसके लिए है
पर प्यार आता है
अपनी सर्वगासी छायाओं के साथ
पूरी दुनिया का सर्वनाश करता
जीवन और यौवन पर ग्रहण लगाता
फिर भी न जाने क्यों हमें
अस्तित्व को निगलते इस कोहरे की
तलाश रहती है ?
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