Shrimad Bhagwat Geeta Saar in Hindi – श्रीमद्भागवत गीता का सार :
Shrimad Bhagwat Geeta Saar in Hindi – श्रीमद्भागवत गीता का सार
मोहग्रस्त होना अच्छी बात नहीं है, क्योंकि इससे न तो तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी और न तुम्हारी कीर्ति बढ़ेगी.
नपुंसक मत बनो, हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर कर्मयुद्ध के लिए तैयार हो जाओ.
ऐसा कोई समय नहीं था, जिसमें तुम नहीं थे अथवा ये बाकि सब लोग नहीं थे और न हीं ऐसा समय कभी आएगा, जब हम सब नहीं रहेंगे.
सुख-दुःख अस्थायी और अनित्य हैं, इसलिए तुम उनको सहन करना सीखो.
जो लोग दुःख-सुख से व्याकुल नहीं होते, वे मोक्ष पाने के योग्य होते हैं.
आत्मा न जन्म लेती है और न मरती. यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है.
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों पहन लेता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नए शरीरों को धारण करती है.
आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं जला सकती, इसको जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती है.
यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा.
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जाओ.
न तो कोई ऐसा समय रहा है कि जिसमें मैं नहीं था, तू नहीं था अथवा ये बाकि लोग नहीं थे और न ऐसा कोई समय आएगा जब इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे.
अगर तू युद्ध नहीं करता है, तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा. तेरे दुश्मन तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, इससे अधिक दुःख की बात और क्या होगी ?
जब मनुष्य मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को पूरी तरह से त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं.
क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है, मूढ़ता से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से व्यक्ति का पतन हो जाता है.
तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं होगा.
भगवान कृष्ण कहते हैं : हे अर्जुन! इन तीनों लोकों में न तो मेरा कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्म करता हूँ. क्योंकि यदि मैं कर्म न करूँ तो सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायेंगे और मैं इस समस्त प्रजा को नष्ट करने का दोषी बन जाऊंगा.
हे अर्जुन, जो व्यक्ति न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, उस कर्मयोगी को संन्यासी समझना चाहिए. क्योंकि राग-द्वेष आदि द्वंद्वों से रहित व्यक्ति सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है.
जो व्यक्ति प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है.
जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है.
जो हुआ, वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है, वह अच्छा हो रहा है, जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा. तुम भूत का पश्चाताप न करो. भविष्य की चिन्ता न करो. वर्तमान चल रहा है.
तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो ? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया ? तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया ? न तुम कुछ लेकर आए, जो लिया यहीं से लिया. जो दिया, यहीं पर दिया. जो लिया, भगवान से लिया. जो दिया, इसी को दिया.
खाली हाथ आए और खाली हाथ चले. जो अाज तुम्हारा है, कल अौर किसी का था, परसों किसी अौर का होगा. तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो. बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है. इसीलिए, जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान के अर्पण करता चल. ऐसा करने से सदा जीवन-मुक्त का आनन्द अनुभव करेगा.
परिवर्तन संसार का नियम है. जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है. एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो, दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो. मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया, मन से मिटा दो, फिर सब तुम्हारा है, तुम सबके हो.
न यह शरीर तुम्हारा है, न तुम शरीर के हो. यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जायेगा. परन्तु आत्मा स्थिर है – फिर तुम क्या हो?
तुम अपने आपको भगवान के अर्पित करो. यही सबसे उत्तम सहारा है. जो इसके सहारे को जानता है वह भय, चिन्ता, शोक से सर्वदा मुक्त है.
तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर. ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा.