Tulsidas Ke Dohe in Hindi with meaning
तुलसीदास के दोहे
- किस तरह के व्यक्ति के घर कभी नहीं जाना चाहिए ?
- किन तीन लोगों का झूठ बोलना बर्बादी का कारण बनता है ?
- परिवार के मुखिया को कैसा होना चाहिए ?
- रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. तुलसीदास के दोहों, चौपाइयों और छंदों में जीवन की गूढ़ बातों को बड़ी हीं सरलता से समझाया गया है. आज भी तुलसीदास की ये रचनाएँ जनमानस के मन को बहुत लुभाती है. तुलसीदास का जन्म 1532 ई. में उत्तर प्रदेश के राजापुर गांव में हुआ था.
रामचरितमानस, दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका इत्यादि इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं.
तुलसीदास के दोहे अर्थ सहित : - बिना तेज के पुरुष की अवशि अवज्ञा होय ।
आगि बुझे ज्यों राख की आप छुवै सब कोय ।।
अर्थात – तेजहीन व्यक्ति की बात को कोई भी व्यक्ति महत्व नहीं देता है, उसकी आज्ञा का पालन कोई नहीं करता है. ठीक वैसे हीं जैसे, जब राख की आग बुझ जाती है, तो उसे हर कोई छूने लगता है. - तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक ।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत राम भरोसे एक ।।
अर्थात – तुलसीदास जी कहते हैं कि विपत्ति में अर्थात मुश्किल वक्त में ये चीजें मनुष्य का साथ देती है.
ज्ञान, विनम्रता पूर्वक व्यवहार, विवेक, साहस, अच्छे कर्म, आपका सत्य और राम ( भगवान ) का नाम.
- काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान ।
तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान ।।
अर्थात – जब तक व्यक्ति के मन में काम की भावना, गुस्सा, अहंकार, और लालच भरे हुए होते हैं.
तबतक एक ज्ञानी व्यक्ति और मूर्ख व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता है, दोनों एक हीं जैसे होते हैं.
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किस तरह के व्यक्ति के घर कभी नहीं जाना चाहिए ?आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह ।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह ।।
अर्थात – जिस स्थान या जिस घर में आपके जाने से लोग खुश नहीं होते हों और उन लोगों की आँखों में आपके लिए न तो प्रेम और न हीं स्नेह हो. वहाँ हमें कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहाँ धन की हीं वर्षा क्यों न होती हो. - मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥
अर्थात – हे रघुवीर, मेरे जैसा कोई दीनहीन नहीं है और तुम्हारे जैसा कोई दीनहीनों का भला करने वाला नहीं है. ऐसा विचार करके, हे रघुवंश मणि.. मेरे जन्म-मृत्यु के भयानक दुःख को दूर कर दीजिए. - कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥
अर्थात – जैसे काम के अधीन व्यक्ति को नारी प्यारी लगती है और लालची व्यक्ति को जैसे धन प्यारा लगता है,
वैसे हीं हे रघुनाथ, हे राम, आप मुझे हमेशा प्यारे लगिए. - सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ।।
अर्थात – हे उमा, सुनो वह कुल धन्य है, दुनिया के लिए पूज्य है और बहुत पावन (पवित्र) है,
जिसमें श्री राम (रघुवीर) की मन से भक्ति करने वाले विनम्र लोग जन्म लेते हैं. - मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन ।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥
अर्थात – राम मच्छर को भी ब्रह्मा बना सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी छोटा बना सकते हैं.
ऐसा जानकर बुद्धिमान लोग सारे संदेहों को त्यागकर राम को हीं भजते हैं.
- तुलसी किएं कुंसग थिति, होहिं दाहिने बाम ।
कहि सुनि सुकुचिअ सूम खल, रत हरि संकंर नाम ।।
बसि कुसंग चाह सुजनता, ताकी आस निरास ।
तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास ।।
अर्थात – बुरे लोगों की संगती में रहने से अच्छे लोग भी बदनाम हो जाते हैं. वे अपनी प्रतिष्ठा गँवाकर छोटे हो जाते हैं. ठीक उसी तरह जैसे, किसी व्यक्ति का नाम भले हीं देवी-देवता के नाम पर रखा जाए, लेकिन बुरी संगती के कारण उन्हें मान-सम्मान नहीं मिलता है. जब कोई व्यक्ति बुरी संगती में रहने के बावजूद अपनी काम में सफलता पाना चाहता है और मान-सम्मान पाने की इच्छा करता है, तो उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती है. ठीक वैसे हीं जैसे मगध के पास होने के कारण विष्णुपद तीर्थ का नाम “गया” पड़ गया.
- सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर । होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं । कर ते डारि परस मनि देहीं ॥
अर्थात – जो लोग मनुष्य का शरीर पाकर भी राम का भजन नहीं करते हैं और बुरे विषयों में खोए रहते हैं. वे लोग उसी व्यक्ति की तरह मूर्खतापूर्ण आचरण करते हैं, जो पारस मणि को हाथ से फेंक देता है और काँच के टुकड़े हाथ में उठा लेता है.
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परिवार के मुखिया को कैसा होना चाहिए ?मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक ।
पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक ।।
अर्थात – परिवार के मुखिया को मुँह के जैसा होना चाहिए, जो खाता-पीता मुख से है और शरीर के सभी अंगों का अपनी बुद्धि से पालन-पोषण करता है. - तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
अर्थात – जो लोग दूसरों की निन्दा करके खुद सम्मान पाना चाहते हैं. ऐसे लोगों के मुँह पर ऐसी कालिख लग जाती है, जो लाखों बार धोने से भी नहीं हटती है.
- बचन बेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि।
सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।
अर्थात – किसी की मीठी बातों और किसी के सुंदर कपड़ों से, किसी पुरुष या स्त्री के मन की भावना कैसी है यह नहीं जाना जा सकता है. क्योंकि मन से मैले सूर्पनखा, मारीच, पूतना और रावण के कपड़े बहुत सुन्दर थे. - तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर |
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ||
अर्थात – किसी व्यक्ति के सुंदर कपड़े देखकर केवल मूर्ख व्यक्ति हीं नहीं बल्कि बुद्धिमान लोग भी धोखा खा जाते हैं . ठीक उसी प्रकार जैसे मोर के पंख और उसकी वाणी अमृत के जैसी लगती है, लेकिन उसका भोजन सांप होता है.
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किन तीन लोगों का झूठ बोलना बर्बादी का कारण बनता है ?सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस |
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ||
अर्थात – मंत्री ( सलाहकार ), चिकित्सक और शिक्षक यदि ये तीनों किसी डर या लालच से झूठ बोलते हैं, तो राज्य,शरीर और धर्म का जल्दी हीं नाश हो जाता है.
- एक अनीह अरूप अनामा । अज सच्चिदानन्द पर धामा ।
ब्यापक विश्वरूप भगवाना । तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ।
– भगवान एक हैं, उन्हें कोई इच्छा नहीं है. उनका कोई रूप या नाम नहीं है. वे अजन्मा औेर परमानंद के परमधाम हैं. वे सर्वव्यापी विश्वरूप हैं. उन्होंने अनेक रूप, अनेक शरीर धारण कर अनेक लीलायें की हैं.
- सो केवल भगतन हित लागी । परम कृपाल प्रनत अनुरागी ।
जेहि जन पर ममता अति छोहू । जेहि करूना करि कीन्ह न कोहू ।
– प्रभु भक्तों के लिये हीं सब लीला करते हैं. वे परम कृपालु और भक्त के प्रेमी हैं. भक्त पर उनकी ममता रहती है. वे केवल करूणा करते हैं. वे किसी पर क्रोध नही करते हैं.
- जपहिं नामु जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।
राम भगत जग चारि प्रकारा । सुकृति चारिउ अनघ उदारा ।
– संकट में पड़े भक्त नाम जपते हैं तो उनके समस्त संकट दूर हो जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं. संसार में चार तरह के अर्थाथी; आर्त; जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त हैं और वे सभी भक्त पुण्य के भागी होते हैं.
- सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन
नाम सुप्रेम पियुश हृद तिन्हहुॅ किए मन मीन।
– जो सभी इच्छाओं को छोड़कर राम भक्ति के रस में लीन होकर राम नाम प्रेम के सरोवर में अपने मन को मछली के रूप में रहते हैं और एक क्षण भी अलग नही रहना चाहते वही सच्चा भक्त है.
- ब्यापक एकु ब्रह्म अविनाशी।सत चेतनघन आनन्द रासी ।
– ब्रह्म अनन्त एवं अविनाशी सत्य चैतन्य औरआनंन्द के भंडार का सत्ता है. - भगति निरुपन बिबिध बिधाना।क्षमा दया दम लता विताना ।
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना ।
– अनेक तरह से भक्ति करना एवं क्षमा दया इन्द्रियों का नियंत्रण लताओं के मंडप समान हैं. मन का नियमन अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह शौच संतोश तप स्वाध्याय ईश्वर प्राणधन भक्ति के फूल और ज्ञान फल है. भगवान के चरणों में प्रेम भक्ति का रस है. वेदों ने इसका वर्णन किया है.
- सासति करि पुनि करहि पसाउ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ।
– अच्छे स्वामी का यह सहज स्वभाव है कि वे पहले दण्ड देकर फिर दया करते हैं. - झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें । जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने ।
जेहि जाने जग जाई हेराई । जागें जथा सपन भ्रम जाई ।
– ईश्वर को नही जानने से झूठ सत्य प्रतीत होता है. बिना पहचाने रस्सी से सांप का भ्रम होता है. लेकिन ईश्वर को जान लेने पर संसार का उसी प्रकार लोप हो जाता है जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम मिट जाता है. - जिन्ह हरि कथा सुनी नहि काना । श्रवण रंध्र अहि भवन समाना ।
– जिसने अपने कानों से प्रभु की कथा नही सुनी उसके कानों के छेद सांप के बिल के समान हैं.
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- जिन्ह हरि भगति हृदय नहि आनी । जीवत सब समान तेइ प्राणी ।
जो नहि करई राम गुण गाना । जीह सो दादुर जीह समाना ।
– जिसने भगवान की भक्ति को हृदय में नही लाया वह प्राणी जीवित मूर्दा के समान है. जिसने प्रभु के गुण नही गाया उसकी जीभ मेढक की जीभ के समान है.
- कुलिस कठोर निठुर सोई छाती । सुनि हरि चरित न जो हरसाती ।
– उसका हृदय बज्र की तरह कठोर और निश्ठुर है जो ईश्वर का चरित्र सुनकर प्रसन्न नही होता है. - सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा । गाबहि मुनि पुराण बुध भेदा।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बश सगुन सो होई।
– सगुण और निर्गुण में कोई अंतर नही है. मुनि पुराण पन्डित बेद सब ऐसा कहते. जेा निर्गुण निराकार अलख और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेम के कारण सगुण हो जाता है.
- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहु बिधि सब संता।
रामचंन्द्र के चरित सुहाए।कलप कोटि लगि जाहि न गाए।
– भगवान अनन्त हैउनकी कथा भी अनन्त है. संत लोग उसे अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं. श्रीराम के सुन्दर चरित्र करोड़ों युगों मे भी नही गाये जा सकते हैं.
- प्रभु जानत सब बिनहि जनाएॅं।कहहुॅ कवनि सिधि लोक रिझाए।
– प्रभु तो बिना बताये हीं सब जानते हैं. अतः संसार को प्रसन्न करने से कभी भी सिद्धि प्राप्त नही हो सकती. - तपबल तें जग सुजई बिधाता। तपबल बिश्णु भए परित्राता।
ंतपबल शंभु करहि संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा।
– तपस्या से कुछ भी प्राप्ति दुर्लभ नही है. इसमें शंका आश्चर्य करने की कोई जरूरत नही है. तपस्या की शक्ति से हीं ब्रह्मा ने संसार की रचना की है और तपस्या की शक्ति से ही विष्णु इस संसार का पालन करते हैं. तपस्या द्वारा हीं शिव संसार का संहार करते हैं. दुनिया में ऐसी कोई चीज नही जो तपस्या द्वारा प्राप्त नही किया जा सकता है. - हरि ब्यापक सर्वत्र समाना।प्रेम ते प्रगट होहिं मै जाना।
देस काल दिशि बिदि सिहु मांही। कहहुॅ सो कहाॅ जहाॅ प्रभु नाहीं।
– भगवान सब जगह हमेशा समान रूप से रहते हैं और प्रेम से बुलाने पर प्रगट हो जाते हैं. वे सभी देश विदेश एव दिशाओं में ब्याप्त हैं. कहा नही जा सकता कि प्रभु कहाँ नही हैं. - तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय
जन गुन गाहक राम दोस दलन करूनायतन।
– प्रभु पूर्णकाम सज्जनों के शिरोमणि और प्रेम के प्यारे हैं. प्रभु भक्तों के गुणग्राहक बुराईयों का नाश करने वाले और दया के धाम हैं. - करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी।
व्यापकु ब्रह्मु अलखु अविनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी।
– योगी जिस प्रभु के लिये क्रोध मोह ममता और अहंकार को त्यागकर योग साधना करते हैं- वे सर्वव्यापक ब्रह्म अब्यक्त अविनासी चिदानंद निर्गुण और गुणों के खान हैं. - मन समेत जेहि जान न वानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी।
महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुॅ काल एकरस रहई।
– जिन्हें पूरे मन से शब्दों द्वारा ब्यक्त नहीं किया जा सकता-जिनके बारे में कोई अनुमान नही लगा सकता-जिनकी महिमा बेदों में नेति कहकर वर्णित है और जो हमेशा एकरस निर्विकार रहते हैं.
मित्रता पर तुलसीदास के दोहे
- जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि विलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरू समाना।
– जो मित्र के दुख से दुखी नहीं होता है उसे देखने से भी भारी पाप लगता है. अपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण धूल समान दुख को सुमेरू पर्वत के समान समझना चाहिए.
- जिन्ह कें अति मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा।
– जिनके स्वभाव में इस प्रकार की बुद्धि न हो वे मूर्ख केवल जिद करके हीं किसी से मित्रता करते हैं. सच्चा मित्र गलत रास्ते पर जाने से रोककर सही रास्ते पर चलाता है और अवगुण छिपाकर केवल गुणों को प्रकट करता है.
- देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।
विपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।
– मित्र से लेन देन करने में शंका न करे. अपनी शक्ति अनुसार हमेशा मित्र की भलाई करे. वेद के अनुसार संकट के समय वह सौ गुणा स्नेह-प्रेम करता है. अच्छे मित्र के यही गुण हैं.
- आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई।
जाकर चित अहिगत सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।
– जो सामने बना-बनाकर मीठा बोलता है और पीछे मन में बुरी भावना रखता है तथा जिसका मन सांप की चाल के जैसा टेढा है ऐसे खराब मित्र को त्यागने में हीं भलाई है.
- सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं। माया कृत परमारथ नाहीं।
– इस संसार में सभी शत्रु और मित्र तथा सुख और दुख माया झूठे हैं और वस्तुतः वे सब बिलकुल नहीं हैं. - सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।
– देवता आदमी मुनि सबकी यही रीति है कि सब अपने स्वार्थपूर्ति हेतु हीं प्रेम करते हैं.
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- Sangati Par tulsidas Ke Dohe
- कठिन कुसंग कुपंथ कराला। तिन्ह के वचन बाघ हरि ब्याला।
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल विसाला।
– खराब संगति अत्यंत बुरा रास्ता है. उन कुसंगियों के बोल बाघ सिह और साॅप
की भाॅति हैं. घर के कामकाज में अनेक झंझट हीं बड़े बीहड़ विशाल पहाड़ की तरह हैं. - सुभ अरू असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई।
समरथ कहुॅ नहि दोश् गोसाईं। रवि पावक सुरसरि की नाई।
– गंगा में पवित्र और अपवित्र सब प्रकार का जल बहता है परन्तु कोई भी गंगाजी को अपवित्र नही कहता. सूर्य आग और गंगा की तरह समर्थ ब्यक्ति को कोई दोष नही लगाता है. - तुलसी देखि सुवेसु भूलहिं मूढ न चतुर नर
सुंदर के किहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।
– सुंदर वेशभूशा देखकर मूर्ख हीं नही चतुर लोग भी धोखा में पर जाते हैं.
मोर की बोली बहुत प्यारी अमृत जैसा है परन्तु वह भोजन सांप का खाता है. - बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं।
जलधि अगाध मौलि बह फेन। संतत धरनि धरत सिर रेनू।
– बडे लोग छोटों पर प्रेम करते हैं. पहाड के सिर में हमेशा घास रहता है.
अथाह समुद्र में फेन जमा रहता है एवं धरती के मस्तक पर हमेशा धूल रहता है. - बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चाहै नाग अरि भागू।
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै शिव द्रोही।
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई।
– यदि गरूड का हिस्सा कौआ और सिंह का हिस्सा खरगोश चाहे-अकारण क्रोध करने बाला
अपनी कुशलता और शिव से विरोध करने बाला सब तरह की संपत्ति चाहे-लोभी अच्छी कीर्ति और
कामी पुरूश बदनामी और कलंक नही चाहे तो उन सभी की इच्छायें ब्यर्थ हैं. - ग्रह भेसज जल पवन पट पाई कुजोग सुजोग।
होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलक्षन लोग।
– ग्रह दवाई पानी हवा वस्त्र -ये सब कुसंगति और सुसंगति पाकर संसार में बुरे और अच्छे वस्तु हो जाते हैं. ज्ञानी और समझदार लोग हीं इसे जान पाते हैं. - को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।
– खराब संगति से सभी नष्ट हो जाते हैं नीच लोगों के विचार के अनुसार चलने से चतुराई बुद्धि भ्रश्ट हो जाती हैं . - तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।
– यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग के सभी सुखों को रखा जाये
तब भी वह एक क्षण के सतसंग से मिलने बाले सुख के बराबर नहीं हो सकता. - सुनहु असंतन्ह केर सुभाउ। भ्ूालेहुॅ संगति करिअ न काउ।
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि घालइ हरहाई।
– अब असंतों का गुण सुनें। कभी भूलवश भी उनका साथ न करें।
उनकी संगति हमेशा कश्टकारक होता है।
खराब जाति की गाय अच्छी दुधारू गाय को अपने साथ रखकर खराब कर देती है।
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- खलन्ह हृदयॅ अति ताप विसेसी । जरहिं सदा पर संपत देखी।
जहॅ कहॅु निंदासुनहि पराई। हरसहिं मनहुॅ परी निधि पाई।
– दुर्जन के हृदय में अत्यधिक संताप रहता है। वे दुसरों को सुखी देखकर जलन अनुभव करते हैं।
दुसरों की बुराई सुनकर खुश होते हैंजैसे कि रास्ते में गिरा खजाना उन्हें मिल गया हो। - काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन।
वयरू अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों।
वे काम क्रोध अहंकार लोभ के अधीन होते हैं। वे निर्दय छली कपटी एवं पापों के भंडार होते हैं।
वे बिना कारण सबसे दुशमनी रखते हैं। जो भलाई करता है वे उसके साथ भी बुराई हीं करते हैं। - झूठइ लेना झूठइदेना। झूठइ भोजन झूठ चवेना।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा।
दुश्ट का लेनादेना सब झूठा होता है।उसका नाश्ता भोजन सब झूठ हीं होता है जैसे मोर बहुत मीठा बोलता है. पर उसका दिल इतना कठोर होता है कि वह बहुत विशधर साॅप को भी खा जाता है।
इसी तरह उपर से मीठा बोलने बाले अधिक निर्दयी होते हैं।
- पर द्रोही पर दार पर धन पर अपवाद
तें नर पाॅवर पापमय देह धरें मनुजाद।
– वे दुसरों के द्रोही परायी स्त्री और पराये धन तथा पर निंदा में लीन रहते हैं।
वे पामर और पापयुक्त मनुश्य शरीर में राक्षस होते हैं। - लोभन ओढ़न लोभइ डासन। सिस्नोदर नर जमपुर त्रास ना।
काहू की जौं सुनहि बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई।
– लोभ लालच हीं उनका ओढ़ना और विछावन होता है।वे जानवर की तरह भोजन और मैथुन करते हैं।
उन्हें यमलोक का डर नहीं होता।किसी की प्रशंसा सुनकर उन्हें मानो बुखार चढ़ जाता है। - जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुॅ जग नृपति।
स्वारथ रत परिवार विरोधी। लंपट काम लोभ अति क्रोधी।
– वे जब दूसरों को विपत्ति में देखते हैं तो इस तरह सुखी होते हैं जैसे वे हीं दुनिया के राजा हों।
वे अपने स्वार्थ में लीन परिवार के सभी लोगों के विरोधी काम वासना और लोभ में लम्पट एवं अति क्रोधी होते हैं। - मातु पिता गुर विप्र न मानहिं। आपु गए अरू घालहिं आनहि।
करहिं मोहवस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा।
– वे माता पिता गुरू ब्राम्हण किसी को नही मानते।खुद तो नश्ट रहते हीं हैं
दूसरों को भी अपनी संगति से बर्बाद करते हैं।मोह में दूसरों से द्रोह करते हैं।
उन्हें संत की संगति और ईश्वर की कथा अच्छी नहीं लगती है। - अवगुन सिधुं मंदमति कामी। वेद विदूसक परधन स्वामी।
विप्र द्रोह पर द्रोह बिसेसा। दंभ कपट जिएॅ धरें सुवेसा।
– वे दुर्गुणों के सागर मंदबुद्धि कामवासना में रत वेदों की निंदा करने बाला
जबर्दस्ती दूसरों का धन लूटने बाला द्रोही विसेसतः ब्राह्मनों के शत्रु होते हैं।
उनके दिल में घमंड और छल भरा रहता है पर उनका लिवास बहुत सुन्दर रहता है।
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- भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सत संगति संसृति कर अंता।
– भक्ति स्वतंत्र रूप से समस्त सुखों की खान है।लेकिन बिना संतों की संगति के भक्ति नही मिल सकती है।
पुनः विना पुण्य अर्जित किये संतों की संगति नही मिलती है।संतों की संगति हीं जन्म मरण के चक्र से छुटकारा देता है। - जेहि ते नीच बड़ाई पावा।सो प्रथमहिं हति ताहि नसाबा।
धूम अनल संभव सुनु भाई।तेहि बुझाव घन पदवी पाई।
– नीच आदमी जिससे बड़प्पन पाता है वह सबसे पहले उसी को मारकर नाश
करता है। आग से पैदा धुआॅ मेघ बनकर सबसे पहले आग को बुझा देता है। - रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई।
मरूत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई।
– धूल रास्ते पर निरादर पड़ी रहती है और सबों के पैर की चोट सहती रहती है।
लेकिन हवा के उड़ाने पर वह पहले उसी हवा को धूल से भर देती है।
बाद में वह राजाओं के आॅखों और मुकुटों पर पड़ती है। - सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा।
कवि कोविद गावहिं असि नीति। खल सन कलह न भल नहि प्रीती।
– बुद्धिमान मनुश्य नीच की संगति नही करते हैं। कवि एवं पंडित नीति कहते हैं
कि दुश्ट से न झगड़ा अच्छा है न हीं प्रेम। - उदासीन नित रहिअ गोसांई। खल परिहरिअ स्वान की नाई।
– दुश्ट से सर्वदा उदासीन रहना चाहिये। दुश्ट को कुत्ते की तरह दूर से हीं त्याग देना चाहिये। - सन इब खल पर बंधन करई । खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी। अहि मूशक इब सुनु उरगारी।
– कुछ लोग जूट की तरह दूसरों को बाॅधते हैं। जूट बाॅधने के लिये अपनी खाल तक खिंचवाता है।
वह दुख सहकर मर जाता है। दुश्ट बिना स्वार्थ के साॅप और चूहा के समान बिना कारण दूसरों का अपकार करते हैं। - पर संपदा बिनासि नसाहीं। जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।
दुश्ट उदय जग आरति हेतू।जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।
– वे दूसरों का धन बर्बाद करके खुद भी नश्ट हो जाते हैं जैसे खेती का नाश
करके ओला भी नाश हो जाता है। दुश्ट का जन्म प्रसिद्ध नीच ग्रह केतु के उदय की तरह संसार के दुख के लिये होता है।
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- तुलसीदास के दोहे | Tulsidas ke Dohe (आत्म अनुभव/self experience)
- जद्यपि जग दारून दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना।
– इस संसार में अनेक भयानक दुख हैं किन्तु सब से कठिन दुख जाति अपमान है। - रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु
अजहुॅ देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु।
– बुद्धिमान शत्रु अकेला रहने पर भी उसे छोटा नही मानना चाहिये।
राहु का केवल सिर बच गया था परन्तु वह आजतक सूर्य एवं चन्द्रमा को ग्रसित कर दुख देता है।
- भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ विधाता वाम
धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम।
– जब ईश्वर विपरीत हो जाते हैं तब उसके लिये धूल पर्वत के समान
पिता काल के समान और रस्सी साॅप के समान हो जाती है। - सासति करि पुनि करहि पसाउ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ।
– अच्छे स्वामी का यह सहज स्वभाव है कि पहले दण्ड देकर पुनः
बाद में सेवक पर कृपा करते हैं। - सुख संपति सुत सेन सहाई।जय प्रताप बल बुद्धि बडाई।
नित नूतन सब बाढत जाई।जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।
– सुख धन संपत्ति संतान सेना मददगार विजय प्रताप बुद्धि शक्ति और प्रशंसा
-जैसे जैसे नित्य बढते हैं-वैसे वैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढता हैै। - जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीढी। नहि पावहिं परतिय मनु डीठी।
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरवर थोरे जग माहीं।
– ऐसे बीर जो रणक्षेत्र से कभी नहीं भागते दूसरों की स्त्रियों पर जिनका मन और दृश्टि कभी नहीं जाता
और भिखारी कभी जिनके यहाॅ से खाली हाथ नहीं लौटते ऐसे उत्तम लोग संसार में बहुत कम हैं। - टेढ जानि सब बंदइ काहू।वक्र्र चंद्रमहि ग्रसई न राहू।
– टेढा जानकर लोग किसी भी ब्यक्ति की बंदना प्रार्थना करते हैं।
टेढे चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता है। - सेवक सदन स्वामि आगमनु।मंगल मूल अमंगल दमनू।
– सेवक के घर स्वामी का आगमन सभी मंगलों की जड और
अमंगलों का नाश करने बाला होता है। - काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि
तिय विसेश पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसकानि।
– भरत की माॅ हॅसकर कहती हैं-कानों लंगरों और कुवरों को
कुटिल और खराब चालचलन बाला जानना चाहिये। - कोउ नृप होउ हमहिं का हानि।चेरी छाडि अब होब की रानी।
– कोई भी राजा हो जाये-हमारी क्या हानि है।
दासी छोड क्या मैं अब रानी हो जाउॅगा। - तसि मति फिरी अहई जसि भावी।
– जैसी भावी होनहार होती है-वैसी हीं बुद्धि भी फिर बदल जाती है। - रहा प्रथम अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते।
– पहले वाली बात बीत चुकी है-समय बदलने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं। - अरि बस दैउ जियावत जाही।मरनु नीक तेहि जीवन चाहीै
- ईश्वर जिसे शत्रु के अधीन रखकर जिन्दा रखें
उसके लिये जीने की अपेक्षा मरना अच्छा है। - सूल कुलिस असि अॅगवनिहारे।ते रतिनाथ सुमन सर मारे।
- जो ब्यक्ति त्रिशूल बज्र और तलवार आदि की मार अपने अंगों पर सह लेते हैं
वे भी कामदेव के पुश्पवान से मारे जाते हैं। - कवने अवसर का भयउॅ नारि विस्वास
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास। - किस मौके पर क्या हो जाये-स्त्री पर विश्वास करके कोई उसी प्रकार मारा जा सकता है
जैसे योग की सिद्धि का फल मिलने के समय योगी को अविद्या नश्ट कर देती है। - दुइ कि होइ एक समय भुआला।हॅसब ठइाइ फुलाउब गाला।
दानि कहाउब अरू कृपनाई।होइ कि खेम कुसल रीताई। - ठहाका मारकर हॅसना और क्रोध से गाल फुलाना एक साथ एकहीं समय मेंसम्भव नहीं है।
दानी और कृपण बनना तथा युद्ध में बहादुरी और चोट भी नहीं लगना कथमपि सम्भव नही है। - सत्य कहहिं कवि नारि सुभाउ।सब बिधि अगहु अगाध दुराउ।
निज प्रतिबिंबु बरूकु गहि जाई।जानि न जाइ नारि गति भाई। - स्त्री का स्वभाव समझ से परे अथाह और रहस्यपूर्ण होता है।
कोई अपनी परछाई भले पकड ले पर वह नारी की चाल नहीं जान सकता है। - काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ
का न करै अवला प्रवल केहि जग कालु न खाइ। - अग्नि किसे नही जला सकती है।समुद्र में क्या नही समा सकता है।
अवला नारी बहुत प्रबल होती है और वह कुछ भी कर सकने में समर्थ होती है।
संसार में काल किसे नही खा सकता है। - जहॅ लगि नाथ नेह अरू नाते।पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू।पति विहीन सबु सोक समाजू। - पति बिना लोगों का स्नेह और नाते रिश्ते सभी स्त्री को सूर्य से भी अधिक ताप देने बाले होते हैं।
शरीर धन घर धरती नगर और राज्य यह सब स्त्री के लिये पति के बिना शोक दुख के कारण होते हैं। - सुभ अरू असुभ करम अनुहारी।ईसु देइ फल हृदय बिचारी।
करइ जो करम पाव फल सोई।निगम नीति असि कह सबु कोई। - ईश्वर शुभ और अशुभ कर्मों के मुताबिक हृदय में विचार कर फल देता है।
ऐसा हीं वेद नीति और सब लोग कहते हैं। - काहु न कोउ सुख दुख कर दाता।निज कृत करम भोग सबु भ्राता।
- कोई भी किसी को दुख सुख नही दे सकता है
सबों को अपने हीं कर्मों का फल भेागना पड़ता है। - जोग वियोग भोग भल मंदा।हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।
जनमु मरनु जहॅ लगि जग जालू।संपति बिपति करमु अरू कालू। - मिलाप और बिछुड़न अच्छे बुरे भोग शत्रु मित्र और तटस्थ -ये सभी भ्रम के
फाॅस हैं।जन्म मृत्यु संपत्ति विपत्ति कर्म और काल-ये सभी इसी संसार के जंजाल हैं। - बिधिहुॅ न नारि हृदय गति जानी।सकल कपट अघ अवगुन खानी।
- स्त्री के हृदय की चाल ईश्वर भी नहीं जान सकते हैं।
वह छल कपट पाप और अवगुणों की खान है। - सुनहुॅ भरत भावी प्रवल विलखि कहेउ मुनिनाथ
हानि लाभ जीवनु मरनु जसु अपजसु विधि हाथ। - मुनिनाथ ने अत्यंत दुख से भरत से कहा कि जीवन में लाभ नुकसान जिंदगी
मौत प्रतिश्ठा या अपयश सभी ईश्वर के हाथों में है। - विशय जीव पाइ प्रभुताई।मूढ़ मोह बस होहिं जनाई।
- मूर्ख साॅसारिक जीव प्रभुता पा कर मोह में पड़कर अपने असली स्वभाव को प्रकट कर देते हैं।
- जग बौराइ राज पद पाएॅ।
- राजपद प्राप्त होने पर सारा संसार मदोन्नमत्त हो जाता है।
- रिपु रिन रंच न राखब काउ।
- शत्रु और ऋण को कभी भी शेस नही रखना चाहिये।
अल्प मात्रा में भी छोड़ना नही चाहिये। - लातहुॅ मोर चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।
- धूल जैसा नीच भी पैर मारने पर सिर चढ़ जाता है।
- अनुचित उचित काजु किछु होउ।समुझि करिअ भल कह सब कोउ।
सहसा करि पाछें पछिताहीं।कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं। - किसी भी काम में उचित अनुचित विचार कर किया जाये तो सब लोग उसे अच्छा कहते हैं। बेद और विद्वान कहते हैं कि जो काम विना विचारे जल्दी में करके पछताते हैं-वे बुद्धिमान नहीं हैं।
- विशई साधक सिद्ध सयाने।त्रिविध जीव जग बेद बखाने।
- संसारी साधक और ज्ञानी सिद्ध पुरूश-इस दुनिया में इसी तीन प्रकार के लोग बेदों ने बताये हैं।
- सुनिअ सुधा देखिअहि गरल सब करतूति कराल
जहॅ तहॅ काक उलूक बक मानस सकृत मराल। - अमृत मात्र सुनने की बात है कितुं जहर तो सब जगह प्रत्यक्षतः देखे जा सकते हैं।
कौआ उल्लू और बगुला तो जहाॅ तहाॅ दिखते हैं परन्तु हॅस तो केवल मानसरोवर में हीं रहते हैं। - सुनि ससोच कह देवि सुमित्रा ।बिधि गति बड़ि विपरीत विचित्रा।
तो सृजि पालई हरइ बहोरी।बालकेलि सम बिधि मति भोरी। - ईश्वर की चाल अत्यंत विपरीत एवं विचित्र है।
वह संसार की सृश्टि उत्पन्न करता और पालन और फिर संहार भी कर देता है।
ईश्वर की बुद्धि बच्चों जैसी भोली विवेक रहित हैं। - कसे कनकु मनि पारिखि पाएॅं। पुरूश परिखिअहिं समयॅ सुभाएॅ।
सोना कसौटी पर कसने और रत्न जौहरी के द्वारा हीं पहचाना जाता है।
पुरूश की परीक्षा समय आने पर उसके स्वभाव चरित्र से होती है। - सुहृद सुजान सुसाहिबहि बहुत कहब बड़ि खोरि।
बिना कारण हीं दूसरों की भलाई करने बाले बुद्धिमान और श्रेश्ठ मालिक से बहुत कहना गल्ती होता है। - धीरज धर्म मित्र अरू नारी।आपद काल परिखिअहिं चारी।
बृद्ध रोगबश जड़ धनहीना।अंध बधिर क्रोधी अतिदीना।
धैर्य धर्म मित्र और स्त्री की परीक्षाआपद या दुख के समय होती हैै।
बूढ़ा रोगी मूर्ख गरीब अन्धा बहरा क्रोधी और अत्यधिक गरीब सबों की परीक्षा इसी समय होती है।कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप। - कलियुग अनेक कठिन पापों का भंडार है जिसमें धर्म ज्ञान योग जप तपस्या आदि कुछ भी नहीं है।
- मैं अरू मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कहन्हें जीव निकाया।
में और मेरा तू और तेरा-यही माया है जिाने सम्पूर्ण जीवों को बस में कर रखा है। - सेवक सुख चह मान भिखारी ।व्यसनी धन सुभ गति विभिचारी।
लोभी जसु चह चार गुमानी।नभ दुहि दूधचहत ए प्रानी।
– सेवक सुख चाहता है भिखारी सम्मान चाहता है।
व्यसनी धन और ब्यभिचारी अच्छी गति लोभी यश और अभिमानी चारों फल अर्थ काम धर्म और मोक्ष चाहते हैं
तो यह असम्भव को सम्भव करना होगा। - रिपु रूज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
– शत्रु रोग अग्नि पाप स्वामी एवं साॅप को कभी भी छोटा मानकर नहीं समझना चाहिये। - नवनि नीच कै अति दुखदाई।जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।
भयदायक खल कै प्रिय वानी ।जिमि अकाल के कुसुम भवानी।
– नीच ब्यक्ति की नम्रता बहुत दुखदायी होती हैजैसे अंकुश धनुस साॅप और
बिल्ली का झुकना।दुश्ट की मीठी बोली उसी तरह डरावनी होती है जैसे बिना ऋतु के फूल। - कबहुॅ दिवस महॅ निविड़ तम कबहुॅक प्रगट पतंग
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।
– बादलों के कारण कभी दिन में घोर अंधकार छा जाता है और कभी सूर्य प्रगट
हो जाते हैं।जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नश्ट हो जाता है और सुसंग पाकर उत्पन्न हो जाता है। - भानु पीठि सेअइ उर आगी।स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।
सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये।
किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये। - हित मत तोहि न लागत कैसे।काल विबस कहुॅ भेसज जैसे।
भलाई की बातें उसी प्रकार अच्छी नहीं लगती है जैसे मृत्यु के अघीन रहने बाले ब्यक्ति को दवा अच्छी नहीं लगती है। - भानु पीठि सेअइ उर आगी।स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी।
– सूर्य का सेवन पीठ की ओर से और आग का सेवन सामने छाती की ओर से करना चाहिये।
किंतु स्वामी की सेवा छल कपट छोड़कर समस्त भाव मन वचन कर्म से करनी चाहिये। - उमा संत कइ इहइ बड़ाई।मंद करत जो करइ भलाई।
– संत की यही महानता है कि वे बुराई करने बाले पर भी उसकी भलाई हीं करते हैं। - साधु अवग्या तुरत भवानी।कर कल्यान अखिल कै हानी।
साधु संतों का अपमान तुरंत संपूर्ण भलाई का अंत नाश कर देता है। - कादर मन कहुॅ एक अधारा।दैव दैव आलसी पुकारा।
ईश्वर का क्या भरोसा।देवता तो कायर मन का आधार है।
आलसी लोग हीं भगवान भगवान पुकारा करते हैं। - सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती।सहज कृपन सन सुंदर नीती।
– मूर्खसे नम्रता दुश्ट से प्रेम कंजूस से उदारता के सुंदर नीति विचार ब्यर्थ होते हैं। - ममता रत सन ग्यान कहानी।अति लोभी सन विरति बखानी।
क्रोधिहि सभ कर मिहि हरि कथा।उसर बीज बएॅ फल जथा।
– मोह माया में फॅसे ब्यक्ति से ज्ञान की कहानी अधिक लोभी से वैराग्य का वर्णन क्रोधी से शान्ति की बातें और
कामुक से ईश्वर की बात कहने का वैसा हीं फल होता है जैसा उसर खेत में बीज बोने से होता है। - काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।
– करोड़ों उपाय करने पर भी केला काटने पर हीं फलता है।
नीच आदमी विनती करने से नहीं मानता है-वह डाॅटने पर हीं झुकता- रास्ते पर आता हैं। - पर उपदेश कुशल बहुतेरे।जे आचरहिं ते नर न घनेरे।
दूसरों को उपदेश शिक्षा देने में बहुत लोग निपुण कुशल होते हैं
परन्तु उस शिक्षा का आचरण पालन करने बाले बहुत कम हीं होते हैं। - संसार महॅ त्रिविध पुरूश पाटल रसाल पनस समा
एक सुमन प्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहिं।
– संसार में तीन तरह के लोग होते हैं-गुलाब आम और कटहल के जैसा।
एक फूल देता है-एक फूल और फल दोनों देता है और एक केवल फल देता है।
लोगों मे एक केवल कहते हैं-करते नहीं।दूसरे जो कहते हैं वे करते भी हैं और तीसरे कहते नही केवल करते हैं। - नयन दोस जा कहॅ जब होइ्र्र।पीत बरन ससि कहुॅ कह सोई।
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा।सो कह पच्छिम उपउ दिनेसा।
– जब किसी को आॅखों में दोस होता है तो उसे चन्द्रमा पीले रंग का दिखाई पड़ता है।
जब पक्षी के राजा को दिशाभ्रम होता है तो उसे सूर्य पश्चिम में उदय दिखाई पड़ता है। - नौका रूढ़ चलत जग देखा।अचल मोहबस आपुहिं लेखा।
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी।कहहिं परस्पर मिथ्यावादी।
– नाव पर चढ़ा हुआ आदमी दुनिया को चलता दिखाई देता है लेकिन वह अपने को स्थिर अचल समझता है।
बच्चे गोलगोल घूमते है लेकिन घर वगैरह नहीं घूमते।लेकिन वे आपस में परस्पर एक दूसरे को झूठा कहते हैं। - एक पिता के बिपुल कुमारा।होहिं पृथक गुन सील अचारा।
कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता।कोउ घनवंत सूर कोउ दाता।
एक पिता के अनेकों पुत्रों में उनके गुण और आचरण भिन्न भिन्न होते हैं।
कोई पंडित कोई तपस्वी कोई ज्ञानी कोई धनी कोई बीर और कोई दानी होता है। - कोउ सर्वग्य धर्मरत कोई।सब पर पितहिं प्रीति समहोई।
कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा।सपनेहुॅ जान न दूसर धर्मा।
– कोई सब जानने बाला धर्मपरायण होता है।पिता सब पर समान प्रेम करते हैं।
पर कोई संतान मन वचन कर्म से पिता का भक्त होता है और सपने में भी वह अपना धर्म नहीं त्यागता। - सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना।जद्यपि सो सब भाॅति अपाना।
एहि बिधि जीव चराचर जेते।त्रिजग देव नर असुर समेते।
– तब वह पुत्र पिता को प्राणों से भी प्यारा होता है भले हीं वह सब तरह से मूर्ख हीं क्यों न हो।
इसी प्रकार पशु पक्षी देवता आदमी एवं राक्षसों में भी जितने चेतन और जड़ जीव हैं। - जानें बिनु न होइ परतीती।बिनु परतीति होइ नहि प्रीती।
प्रीति बिना नहि भगति दृढ़ाई।जिमि खगपति जल कै चिकनाई।
किसी की प्रभुता जाने बिना उस पर विश्वास नहीं ठहरता और विश्वास की
कमी से प्रेम नहीं होता।प्रेम बिना भक्ति दृढ़ नही हो सकती जैसे पानी की चिकनाई नही ठहरती है। - सोहमस्मि इति बृति अखंडा।दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा।तब भव मूल भेद भ्रमनासा।
मैं ब्रम्ह हूॅ-यह अनन्य स्वभाव की प्रचंड लौ है।
जब अपने नीजि अनुभव के सुख का सुन्दर प्रकाश फैलता है
तब संसार के समस्त भेदरूपी भ्रम का अन्त हो जाता है। - कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन विवेक
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्युह अनेक।
– सच्चा ज्ञान कहने समझने में मुशकिल एवं उसे साधने में भी कठिन है।
यदि संयोग से कभी ज्ञान हो भी जाता है तो उसे बचाकर रखने में अनेकों बाधायें हैं। - ग्यान पंथ कृपान कै धारा ।परत खगेस होइ नहिं बारा।
जो निर्विघ्न पंथ निर्बहई।सो कैवल्य परम पद लहईं
– ज्ञान का रास्ता दुधारी तलवार की धार के जैसा है।इस रास्ते में भटकते देर नही लगती।
जो ब्यक्ति बिना विघ्न बाधा के इस मार्ग का निर्वाह कर लेता है वह मोक्ष के परम पद को प्राप्त करता है। - नहिं दरिद्र सम दुख जग माॅहीं।संत मिलन सम सुख जग नाहीं।
पर उपकार बचन मन काया।संत सहज सुभाउ खगराया।
– संसार में दरिद्रता के समान दुख एवं संतों के साथ मिलन समान सुख नहीं है।
मन बचन और शरीर से दूसरों का उपकार करना यह संत का सहज स्वभाव है। - मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।
काम वात कफ लोभ अपारा।क्रोध पित्त नित छाती जारा।
अज्ञान सभी रोगों की जड़ है।इससे बहुत प्रकार के कश्ट उत्पन्न होते हैं।
काम वात और लोभ बढ़ा हुआ कफ है।क्रोध पित्त है जो हमेशा हृदय जलाता रहता है।
तुलसीदास के दोहे | Tulsidas ke Dohe(कलियुग /Kaliyuga ) - सो कलिकाल कठिन उरगारी।पाप परायन सब नरनारी।
कलियुग का समय बहुतकठिन है।इसमें सब स्त्री पुरूस पाप में लिप्त रहते हैं। - कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भये सदग्रंथ
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।
कलियुग के पापों ने सभी धर्मों को ग्रस लिया है।
धर्म ग्रथों का लोप हो गया है।
घमंडियों ने अपनी अपनी बुद्धि में कल्पित रूप से अनेकों पंथ बना लिये हैं। - भए लोग सब मोहबस लेाभ ग्रसे सुभ कर्म
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउॅ कछुक कलिधर्म।
– सब लोग मोहमाया के अधीन रहते हैं।
अच्छे कर्मों को लोभ ने नियंत्रित कर लिया है।
भगवान के भक्तों को कलियुग के धर्मों को जानना चाहिये। - बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।
कलियुग में वर्णाश्रम का धर्म नही रहता हैं।चारों आश्रम भी नहीं रह जाते।
सभी नर नारी बेद के बिरोधी हो जाते हैं।ब्राहमण वेदों के विक्रेता एवं राजा प्रजा के भक्षक होते हैं।
वेद की आज्ञा कोई नही मानता है। - मारग सोइ जा कहुॅ जोइ भावा।पंडित सोइ जो गाल बजाबा।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोईं।ता कहुॅ संत कहइ सब कोई।
– जिसे जो मन को अच्छा लगता है वही अच्छा रास्ता कहता है।
जो अच्छा डंंग मारता है वही पंडित कहा जाता है।
जो आडंबर और घमंड में रहता है उसी को लोग संत कहते हैं। - सोइ सयान जो परधन हारी।जो कर दंभ सो बड़ आचारी।
जो कह झूॅठ मसखरी जाना।कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना।
– जो दूसरों का धन छीनता है वही होशियार कहा जाता है।
घमंडी अहंकारी को हीं लोग अच्छे आचरण बले मानते हैं।
बहुत झूठ बोलने बाले को हीं-हॅसी दिलग्गी करने बाले को हीं गुणी आदमी समझा जाता है। - निराचार जो श्रुतिपथ त्यागी।कलिजुग सोइ ग्यानी सो विरागी
जाकें नख अरू जटा बिसाला ।सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।
– हीन आचरण करने बाले जो बेदों की बातें त्याग चुके हैं
वही कलियुग में ज्ञानी और वैरागी माने जाते हैं।
जिनके नाखून और जटायें लम्बी हैं-वे कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी हैं। - असुभ वेस भूसन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।
– जो अशुभ वेशभूसा धारण करके खाद्य अखाद्य सब खाते हैं
वे हीं सिद्ध योगी तथा कलियुग में पूज्य माने जाते हैं। - जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ
मन क्रम वचन लवार तेइ वकता कलिकाल महुॅ।
– जो अपने कर्मों से दूसरों का अहित करते हैं उन्हीं का गौरव होता है और वे हीं इज्जत पाते हैं।
जो मन वचन एवं कर्म से केवल झूठ बकते रहते हैं वे हीं कलियुग में वक्ता माने जाते हैं। - नारि बिबस नर सकल गोसाई।नाचहिं नट मर्कट कि नाई।
सुद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना।मेलि जनेउ लेहिं कुदाना।
– सभी आदमी स्त्रियों के वश में रहते हैं और बाजीगर के बन्दर की तरह नाचते रहते हैं।
ब्राहमनों को शुद्र ज्ञान का उपदेश देते हैं और गर्दन में जनेउ पहन कर गलत तरीके से दान लेते हैं। - सब नर काम लोभ रत क्रोधी।देव विप्र श्रुति संत विरोधी।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी।भजहिं नारि पर पुरूस अभागी।
– सभी नर कामी लोभी और क्रोधी रहते हैं।देवता ब्राहमण वेद और संत के विरोधी होते हैं।
अभागी औरतें अपने गुणी सुंदर पति को त्यागकर दूसरे पुरूस का सेवन करती है। - सौभागिनीं विभूसन हीना।विधवन्ह के सिंगार नवीना।
गुर सिस बधिर अंध का लेखा।एक न सुनइ एक नहि देखा।
– सुहागिन स्त्रियों के गहने नही रहते पर विधबायें रोज नये श्रृंगार करती हैं।
चेला और गुरू में वहरा और अंधा का संबंध रहता है।
शिश्य गुरू के उपदेश को नही सुनता
और गुरू को ज्ञान की दृश्टि प्राप्त नही रहती है। - हरइ सिश्य धन सोक न हरई।सो गुर घोर नरक महुॅ परई
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं।उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।
– जो गुरू अपने चेला का धन हरण करता है लेकिन उसके
दुख शोक का नाश नही करता-वह घेार नरक में जाता है।
माॅ बाप बच्चों को मात्र पेट भरने की शिक्षा धर्म सिखलाते हैं। - ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं विप्र गुर घात।
– स्त्री पुरूस ब्रह्म ज्ञान के अलावे अन्य बात नही करते लेकिन लोभ में
कौड़ियों के लिये ब्राम्हण और गुरू की हत्या कर देते हैं। - बादहिं सुद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि
जानइ ब्रम्ह सो विप्रवर आॅखि देखावहिं डाटि।
– शुद्र ब्राम्हणों से अनर्गल बहस करते हैं।वे अपने को उनसे कम नही मानते।
जो ब्रम्ह को जानता है वही उच्च ब्राम्हण है ऐसा कहकर वे ब्राम्हणों को डाॅटते हैं। - पर त्रिय लंपट कपट सयाने।मोह द्रेाह ममता लपटाने।
तेइ अभेदवादी ग्यानी नर।देखा मैं चरित्र कलिजुग कर।
– जो अन्य स्त्रियों में आसक्त छल कपट में चतुर मोह द्रोह ममता में लिप्त होते हैं
वे हीं अभेदवादी ज्ञान कहे जाते हैं।कलियुग का यही चरित्र देखने में आता है। - आपु गए अरू तिन्हहु धालहिं।जे कहुॅ सत मारग प्रतिपालहिं।
कल्प कल्प भरि एक एक नरका।परहिं जे दूसहिं श्रुति करि तरका।
– वे खुद तो बर्बाद रहते हैं और जो सन्मार्ग का पालन करते हैं
उन्हें भी बर्बाद करने का प्रयास करते हैं।
वे तर्क में वेद की निंदा करते हैं और अनेकों जीवन तक नरक में पड़े रहते हैं। - जे बरनाधम तेलि कुम्हारा।स्वपच किरात कोल कलवारा।
नारि मुइ्र्र गृह संपति नासी।मूड़ मुड़ाई होहिं संन्यासी।
– तेली कुम्हार चाण्डाल भील कोल एवं कलवार जो नीच वर्ण के हैं
स्त्री के मृत्यु पर या घर की सम्पत्ति नश्ट हो जाने पर सिर मुड़वाकर सन्यासी बन जाते हैं। - ते विप्रन्ह सन आपु पुजावहि।उभय लोक निज हाथ नसावहिं।
विप्र निरच्छर लोलुप कामी।निराचार सठ बृसली स्वामी।
– वे स्वयं को ब्राम्हण से पुजवाते हैं और अपने हीं हाथों अपने सभी लोकों को बर्बाद करते हैं। ब्राम्हण अनपट़ लोभी कामी आचरणहीन मूर्ख एवं
नीची जाति की ब्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं। - सुद्र करहिं जप तप ब्रत नाना।बैठि बरासन कहहिं पुराना।
सब नर कल्पित करहिं अचारा।जाइ न बरनि अनीति अपारा।
– शुद्र अनेक प्रकार के जप तप व्रत करते हैं
और उॅचे आसन पर बैठकरपुराण कहते हैं।सबलोग मनमाना आचरण करते हैं।
अनन्त अन्याय का वर्णन नही किया जा सकता है। - भए वरन संकर कलि भिन्न सेतु सब लोग
करहिं पाप पावहिं दुख भय रूज सोक वियोग।
– इस युग में सभी लोग वर्णशंकर एवं अपने धर्म विवेक से च्युत होकर
अनेकानेक पाप करते हैं तथा दुख भय शोक और वियोग का दुख पाते हैं। - बहु दाम सवाॅरहि धाम जती।बिशया हरि लीन्हि न रही बिरती।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।कलि कौतुक तात न जात कही।
– सन्यायी अपने घर को बहुुत पैसा लगाकर सजाते हैं
कारण उनमें वैराग्य नहीं रह गया है।उन्हें सांसारिक भेागों ने घेर लिया है।
अब गृहस्थ दरिद्र और तपस्वी धनबान बन गये हैं।कलियुग की लीला अकथनीय है। - कुलवंति निकारहिं नारि सती।गृह आनहि चैरि निवेरि गती।
सुत मानहि मातु पिता तब लौं।अबलानन दीख नहीं जब लौं।
– वंश की लाज रखने बाले सती स्त्री को लोग घर से बाहर कर देते हैं और
किसी कुलटा दासी को घर में रख लेते हैं।
पुत्र माता पिता को तभी तक सम्मान देते हैं
जब तक उन्हें विवाहोपरान्त अपने स्त्री का मुॅह नहीं दिख जाता है। - ससुरारि पिआरि लगी जब तें।रिपु रूप कुटुंब भये तब तें।
नृप पाप परायन धर्म नही।करि दंड बिडंब प्रजा नित हीं।
– ससुराल प्यारी लगने लगती है और सभी पारिवारिक संबंधी शत्रु रूप हो जाते हैं।
राजा पापी हो जाते हैं एवं प्रजा को अकारण हीं दण्ड देकर उन्हें प्रतारित किया करते हैं। - धनवंत कुलीन मलीन अपी।द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।
नहि मान पुरान न बेदहिं जो।हरि सेवक संत सही कलि सो।
– नीच जाति के धनी भी कुलीन माने जाते हैं।
ब्राम्हण का पहचान केवल जनेउ रह गया है।
नंगे बदन का रहना तपस्वी की पहचान हो गई है।
जो वेद पुराण को नही मानते वे हीं इस समय भगवान के भक्त और सच्चे संत कहे जाते हैं। - कवि बृंद उदार दुनी न सुनी।गुन दूसक ब्रात न कोपि गुनी।
कलि बारहिं बार दुकाल परै।बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।
– कवि तो झुंड के झुंड हो जायेंगें पर संसार में उनके गुण का आदर करने बाला नहीं होगा। गुणी में दोश लगाने बाले भी अनेक होंगें।कलियुग में अकाल भी अक्सर पड़ते हैं और अन्न पानी बिना लोग दुखी होकर खूब मरते हैं। - सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेश पाखंड
मान मोह भारादि मद ब्यापि रहे ब्रम्हंड।
– कलियुग में छल कपट हठ अभिमान पाखंड काम क्रोध लोभ और
घमंड पूरे संसार में ब्याप्त हो जाते हैं। - तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत भख दान
देव न बरखहिं धरनी बए न जामहिं धान।
– आदमी जप तपस्या ब्रत यज्ञ दान के धर्म तामसी भाव से करेंगें।
देवता पृथ्वी पर जल नही बरसाते हैं और बोया हुआ धान अन्नभी नहीं उगता है। - अबला कच भूसन भूरि छुधा।धनहीन दुखी ममता बहुधा।
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता।मति थोरि कठोरि न कोमलता।
– स्त्रियों के बाल हीं उनके आभूसन होते हैं।उन्हें भूख बहुत लगती है।
वे धनहीन एवं अनेकों तरह की ममता रहने के कारण दुखी रहती है।
वे मूर्ख हैं पर सुख चाहती हैं।धर्म में उनका तनिक भी प्रेम नही है।
बुद्धि की कमी एवं कठोरता रहती है-कोमलता नहीं रहती है। - नर पीड़ित रोग न भोग कहीं।अभिमान विरोध अकारनहीं।
लघु जीवन संबतु पंच दसा।कलपांत न नास गुमानु असा।
– लोग अनेक बिमारियों से ग्रसित बिना कारण घमंड एवं विरोध करने बाले अल्प आयु किंतु
घमंड ऐसा कि वे अनेक कल्पों तक उनका नाश नही होगा।ऐसा कलियुग का प्रभाव होगा। - कलिकाल बिहाल किए मनुजा।नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।
नहि तोश विचार न शीतलता।सब जाति कुजाति भए मगता।
– कलियुग ने लोगों को बेहाल कर दिया है।लोग अपने बहन बेटियों का भी ध्यान नही रखते। मनुश्यों में संतोश विवेक और शीतलता नही रह गई है।
जाति कुजाति सब भूलकर लोग भीख माॅगने बाले हो गये हैं। - इरिशा पुरूशाच्छर लोलुपता।भरि पुरि रही समता बिगता।
सब लोग वियोग विसोक हए।बरनाश्रम धर्म अचार गए।
– ईश्र्या कठोर वचन और लालच बहुत बढ़ गये हैं और
समता का विचार समाप्त हो गया है।लोग विछोह और दुख से ब्याकुल हैं।
वर्णाश्रम का आचरण नश्ट हो गया है। - दम दान दया नहि जानपनी।जड़ता परवंचनताति घनी।
तनु पोशक नारि नरा सगरे।पर निंदक जे जग मो बगरे।
– इन्द्रियों का दमन दान दया एवं समझ किसी में नही रह गयी है।
मूर्खता एवं लोगों को ठगना बहुत बढ़ गया है।
सभी नर नारी केवल अपने शरीर के भरण पोशन में लगे रहते हैं।
दूसरों की निंदा करने बाले संसार में फैल गये हैं। - प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुॅ एक प्रधान
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।
– धर्म के चार चरण सत्य दया तप और दान हैं जिनमें कलियुग में एक दान हीं प्रधान है।
दान जैसे भी दिया जाये वह कल्याण हीं करता है। - जनम मरन सब दुख सुख भोगा।हानि लाभ प्रिय मिलन वियोगा।
काल करम बस होहिं गोसाईं।बरबस राति दिवस की नाईं। - जन्म मृत्यु सभी दुख सुख के भेाग हानि लाभ प्रिय लोगों से मिलना या
बिछुड़ना समय एवं कर्म के अधीन रात एवं दिन की तरह स्वतः होते रहते हैं। - सुख हरसहिं जड़ दुख विलखाहीं।दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।
धीरज धरहुं विवेक विचारी।छाड़िअ सोच सकल हितकारी। - मूर्ख सुख के समय खुश और दुख की घड़ी में रोते विलखते हैं लेकिन धीर
ब्यक्ति दोनों समय में मन में समान रहते हैं। विवेकी ब्यक्ति धीरज रखकर शोक का परित्याग करते हैं। - जनि मानहुॅ हियॅ हानि गलानी।काल करम गति अघटित जानी।
- समय और कर्म की गति अमिट जानकर अपने हृदय में हानि और ग्लानि कभी मत मानो।
- सोचिअ विप्र जो वेद विहीना।तजि निज धरमु विसय लय लीना।
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना।जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना। - उस ब्राह्मण का दुख करना चाहिये जो वेद नही जानता और अपना कर्तब्य छोड़कर विसय भोगों में लिप्त रहता है।
उस राजा का भी दुख करना चाहिये जो नीति नहीं जानता और जो अपने प्रजा को अपने प्राणों के समान प्रिय नहीं मानता है। - सोचिअ बयसु कृपन धनबानू।जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।
सोचिअ सुद्र विप्र अवमानी।मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी। - उस वैश्य के बारे में दुख होना चाहिये जो धनी होकर भी कंजूस है
तथा जो अतिथि सत्कार और शिव की भक्ति मन से नही करता है।
वह शुद्र भी दुख के लायक है जो ब्राह्मण का अपमान करता है और
बहुत बोलने और मान इज्जत चाहने वाला हो तथा जिसे अपने ज्ञान का बहुत घमंड हो। - सोचिअ पुनि पति बंचक नारी।कुटिल कलह प्रिय इच्छाचारी।
सोचिअ बटु निज ब्रतु परिहरई।जो नहि गुर आयसु अनुसरई। - उस स्त्री का भी दुख करना चाहिये जो पति से छलावा करने बाली
कुटिल झगड़ालू ओर मनमानी करने बाली है।
उस ब्रह्मचारी का भी दुख करना चाहिये जो ब्रह्मचर्यब्रत छोड़कर
गुरू के आदेशानुसार नहीं चलता है। - सोचिअ गृही जो मोहवस करइ करम पथ त्याग
सोचिअ जती प्रपंच रत विगत विवेक विराग। - उस गृहस्थ का भी सोच करना चाहिये जिसने मोहवश अपने कर्म को छोड़ दिया है।
उस सन्यासी का भी दुख करना चाहिये जो सांसारिक जंजाल में फॅसकर ज्ञान वैराग्य से विरक्त हो गया है। - बैखानस सोइ सोचै जोगू।तपु विहाइ जेहि भावइ भोगू।
सोचअ पिसुन अकारन क्रोधी।जननि जनक गुर बंधु विराधी। - वह वाणप्रस्थी ब्यक्ति भी सोच का कारण है जो तपस्या छोड़ भोग में रत है।
चुगलखोर अकारण क्रोध करने बाला माता पिता गुरू एवं भाई बंधु के साथ
बैर विरोध रखनेवाला भी दुख और सोच करने लायक है। - सब विधि सोचिअ पर अपकारी।निज तनु पोसक निरदय भारी।
सोचनीय सबहीं विधि सोई।जो न छाड़ि छलु हरि जन होई। - जो दूसरोंका अहित करता है-केवल अपने शरीर का भरण पोशण करता है
और अन्य लोगों के लिये निर्दयी है-जो सब छल कपट छोड़कर भगवान का
भक्त नहीं है-उनका तो सब प्रकार से दुख करना चाहिये। - अनुचित उचित विचारू तजि जे पालहिं पितु बैन
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन। - जो उचित अनुचित का विचार छोड़कर अपने पिता की बातें मानता है वे इस
लोक में सुख और यश पाकर अन्ततः स्वर्ग में निवास करते हैं। - गुर पित मातु स्वामि हित बानी।सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।
उचित कि अनुचित किएॅ विचारू।धरमु जाइ सिर पातक भारू।
गुरू पिता माता स्वामी की बातें अपने भलाई की मानकर प्रसन्न मन से मानना चाहिये।
इसमें उचित अनुचित का विचार करने पर धर्म का नाश होता है और भारी पाप सिर पर लगता है। - करम प्रधान विस्व करि राखा।जो जस करई सो तस फलु चाखा।
- ईश्वर ने विश्व मंे कर्म की महत्ता दी है।
जो जैसा कर्म करता है-वह वैसा हीं फल भोगता है। - जो सेवकु साहिवहि संकोची।निज हित चहई तासु मति पोची।
सेवक हित साहिब सेवकाई।करै सकल सुभ लोभ बिहाई। - सेवक यदि मालिक को दुविधा में डालकर अपना भलाई चाहता है
तो उसकी बुद्धि नीच है।सेवक की भलाई इसी में है कि वह
तमाम सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा करे। - रहत न आरत कें चित चेत।
– दुखी ब्यक्ति के हृदय चित्त में विवेक नहीं रहता है। - आगम निगम प्रसिद्ध पुराना।सेवा धरमु कठिन जगु जाना।
स्वामि धरम स्वारथहिं विरोधू।वैरू अंध प्रेमहि न प्रबोधू।
– वेद शाश्त्र पुराणों में प्रसिद्ध है और संसार जानता है कि सेवा धर्म अत्यंत कठिन है।
अपने स्वामी के प्रति कर्तब्य निर्बाह और ब्यक्तिगत स्वार्थ एक साथ नहीं निबह सकते।
शत्रुता अंधा होता है और प्रेम को ज्ञान नहीं रहता है।दोनाे में गलती का डर बना रहता हैै। - सहज सनेहॅ स्वामि सेवकाई।स्वारथ छल फल चारि विहाई।
अग्या सम न सुसाहिब सेवा।सो प्रसादु जन पावै देवा।
– छल कपट स्वार्थ अर्थ धर्म काम मोक्ष सबों को त्याग स्वाभावतःस्वामी की सेवा
और आज्ञा पालन के बराबर स्वामी की और कोई सेवा नहीं है। - गुर पितु मात स्वामि सिख पालें।चलेहुॅ कुमग पग परहिं न खाले।
– गुरू पिता माता और स्वामी की शिक्षा का पालन करने से कुमार्ग पर भी चलने से पैर गडटे़ में नहीं पड़ता है। - मुखिआ मुख सो चाहिऐ खान पान कहुॅ एक
पालइ पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक।
– मुखिया मुॅह के समान होना चाहिये जो खाने पीने में अकेला है
पर विवेक पूर्वक शरीर के सभी अंगों का पालन पोशन करता है। - ऐसेहु पति कर किएॅ अपमाना।नारि पाव जमपुर दुख नाना।
एकइ धर्म एक व्रत नेमा।काएॅ वचन मन पति पद प्रेमा। - पति का अपमान करने पर स्त्री नरक में अनेक प्रकार का दुख पाती है।
शरीर वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिये एकमात्र धर्म ब्रत और नियम है। - एक दुश्ट अतिसय दुखरूपा।जा बस जीव परा भवकूपा।
- एक रचइ जग गुन बस जाके।प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताके।
अविद्या दोशपूर्ण है और अति दुखपूर्ण है।इसी के अधीन लोग संसार रूपी कुआॅ में पड़े हुये हैं।
विद्या के वश में गुण है जो इस संसार की रचना करती है और वह ईश्वर से प्रेरित होती है।
उसकी अपनी कोई शक्ति नही है। - ग्यान मान जहॅ एकउ नाहीं।देख ब्रह्म समान सब माॅही।
कहिअ तात सो परम विरागी।तन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी। - ज्ञान वहाॅ है जहाम् एक भी दोश नहीं है।वह सब में एक हीं ब्रह्म को देखता है।
उसी को वैरागी कहना चाहिये जो समस्त सिद्धियों और सभी गुणों को तिनका के जैसा त्याग दिया हो। - माया ईसु न आपु कहुॅ जान कहिअ सो जीव
बंध मोच्छ वद सर्वपर माया प्रेरक सीव। - जो माया ईश्वर और अपने आप को नहीं जानता-वही जीव है।
जो कर्मों के मुताविक बंधन एवं मोक्ष देने बाला सबसे अलग माया का प्रेरक है-वही ईश्वर है। - धर्म तें विरति जोग तें ग्याना।ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना।
- धर्म के आचरण से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है और ज्ञान हीं मोक्ष देने बाला है।
- राज नीति बिनु धन बिनुधर्मा।हरिहिं समर्पे बिनु सतकर्मा।
विद्या बिनु विवेक उपजाएॅ।श्रमफल पढें किएॅ अरू पाएॅ। - संग मे जती कुमंत्र ते राजा।मान तें ग्यान पान तें लाजा।
नीति सिद्धान्त बिना राज्य धर्म बिना धन प्राप्त करना भगवान को समर्पित किये बिना उत्तम कर्म करना
और विवेक रखे बिना विद्या पढ़ने से केवल मिहनत हीं हाथ लगता है।
सांसारिक संगति से सन्यासी बुरे सलाह से राजा मान से ज्ञान और
मदिरापान से लज्जा हाथ लगती है। - प्रीति प्रनय बिनु मद तें गुनी।नासहिं वेगि नीति अस सुनी।
- नम्रता बिना प्रेम और घमंड से गुणवान जल्द हीं नश्ट हो जाते हैं।
- तब मारीच हृदयॅ अनुमान।नवहि विरोध नहि कल्याना।
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी।बैद बंदि कवि भानस गुनी। - शस्त्रधारी रहस्य जानने बाला शक्तिशाली स्वामी मूर्ख धनी बैद्य भाट कवि एवं
रसोइया-इन नौ लोगों से शत्रुता विरोध करने में कल्याण कुशल नहीं होता है। - इमि कुपंथ पग देत खगेसा।रह न तेज तन बुधि बल लेसा।
- कुमार्ग पर पैर देते हीं शरीर में बुद्धि ताकत तेज लेशमात्र भी नहीं रह जाता है।
- परहित बस जिन्ह के मन माहीं।तिन्ह कहुॅ जग दुर्लभ कछु नाहीं।
- जिनके हृदय मन में दूसरों का हित बसता है उनके लिये इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
- सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ।भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ।
- अच्छी तरह विचारित अैार चिन्तन किये हुये शास्त्र को भी अनेकों बार देखना चाहिये और
अच्छी तरह सेवा किये हुये राजा को भी अपने वश में नहीं मानना चाहिये। - राखिअ नारि जदपि उर माहीॅ।जुबती सास्त्र नृपति बस नाहिं।
- स्त्री को हृदय में रखने पर भी युवती शास्त्र और राजा किसी के बश मेंनहीं रहते।
- तात तीनि अति प्रवल खल काम क्रोध अरू लोभ
मुनि विग्यान धाम मन करहिं निमिस महुॅ छोभ। - काम क्रोध और लोभ-येतीनों अति बलवान शत्रु हैं।
ये ज्ञानी मुनियों के मन को भी तुरंत दुखी कर देते हैं। - लोभ के इच्छा दंभ बल काम के केबल नारि
क्रोध के पुरूश बचन बल मुनिवर कहहिं विचारि। - लोभ को इच्छा और घमंड का बल है।काम को केवल स्त्री का बल है।
क्रोध को कठोर बचनों का बल है-ऐसा ज्ञानी मुनियों का विचार है। - अनुज बधू भगिनी सुत नारी।सुनु सठ कन्या सम ए चारी।
इन्हहि कुदृश्टि बिलोकइ जोइ।ताहि बधें कछु पाप न होइ। - रे मूर्ख-सुन लो।छोटे भाई की स्त्री बहन पुत्र की स्त्री और बेटी-ये चारों एक हैं।
इनकी ओर जो बुरी नजर से देखे-उसे मारने में तनिक भी पाप नहीं लगता है। - छिति जल पावक गगन समीरा।पंच रचित अति अधम सरीरा।
- पृथ्वी जल आग आकाश और हवा-इन्हीं पाॅच तत्वों से यह अधम शरीर बना है।
- सचिव वैद गुर तीनी जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास। - मंत्री वैद्य गुरू ये तीनों यदि डर या लोभ से हित की बात नहीं कह कर केवल प्रिय बोलते हैं
तो राज्य धर्म और शरीर तीनो का जल्दी हीं विनाश हो जाता है। - जो आपन चाहै कल्याना।सुजस सुमति सुभ गति सुख नाना।
सो परनारि लिलार गोसांई।तजउ चउथि के चाॅद की नाई। - जो आदमी अपनी भलाई अच्छी प्रतिश्ठा अच्छी बुद्धि और विकाश
तथा अनेक प्रकार के सुख चाहते हों वे दूसरों की स्त्री के मस्तक को
चतुर्थी की चाॅद की तरह त्याग दें-पर स्त्री का मुॅह कभी न देखे। - काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ
सब परिहरि रघुवीरहि भजहुॅ भजहि जेहि संत। - काम क्रोध घमंड लोभ सब नरक के रास्ते हैं।
इन्हें छोड़ कर ईश्वर की प्रार्थना करें जैसा संत लोग सर्वदा करते हैं। - सुमति कुमति सब के उर रहहिं।नाथ पुरान निगम अस कहहिं।
जहाॅ सुमति तहॅ सम्पति नाना।जहाॅ कुमति तहॅ बिपति निदाना। - वेद पुराण का मत है कि सुबुद्धि और कुबुद्धि सबके दिल में रहता है
किंतु जहाॅ अच्छी बुद्धि है वहाॅ अनेको प्रकार की सुख सम्पत्ति रहती है
एवं कुबुद्धि की जगह विपत्तियों का भंडार रहता है। - सरनागत कहुॅ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि
ते नर पावॅर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि। - जो आदमी स्वयं का अहित समझकर शरण में आये ब्यक्ति का त्याग करते हैं
वे नीच और पापी हैं तथा उन्हें देखने में भी नुकसान है। - बरू भल बास नरक कर ताता।दुश्ट संग जनि देइ विधाता।
- नरक में रहना अच्छा है किंतु ईश्वर दुश्ट दुर्जन की संगति कभी न दे।
- नाथ बयरू कीजे ताही सों।बुधि बल सकिअ जीति जाही सों।
- दुशमनी उसी से करनी चाहिये जिसे बुद्धि और बल के द्वारा जीता जा सके।
- प्रिय बानी जे सुनहि जे कहहिं।ऐसे नर निकाय जग अहहिं।
- संसार में ऐसे लोग बहुत ज्यादा हैं जो मुॅह पर सामने प्यारी मीठी बात हीं कहते और सुनते हैं।
- बचन परम हित सुनत कठोरे।सुनहि जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे।
- ऐसे लोग बहुत कम हीं होते हैं जो सुनने में कठोर किंतु प्रभाव में कल्याणकारी बातें कहते और सुनते हैं।
- साहस अनृत चपलता माया।भय अविवेक असौच अदाया।
रिपु कर रूप सकल तैं गावा।अति विसाल भय मेाहि सुनाबा। - साहस असत्य वचन चंचलता छल कपट डर मूर्खता अपवित्रता और निर्दयता
ये सब आठ शत्रु के समग्र गुण होते हैं। - फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरसहिं जलद
मूरूख हृदय न चेत जौं गुरू मिलहिं विरंचि सम। - ब्रहमा जैसा गुरू मिल जाने पर भी मूर्ख के हृदय में ज्ञान उत्पन्न नहीं होता
जैसे कि बादल द्वारा अमृत रूपी बर्शा होने के बाबजूद बेंत फलता फूलता नहीं है। - प्रीति विरोध समान सन करिअ नीति अस आहि
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि। - प्रेम और शत्रुता बराबरी बाले से हीं करना चाहिये।नीति ऐसा हीं कहता है।
यदि शेर मेढक को मार दे तो क्या कोई भी उसे अच्छा कहेगा। - जौं अस करौं तदपि न बड़ाई।मुएहि बधें नहि कछु मनुसाई।
कौल कामबस कृपिन बिमूढा।अति दरिद्र अजसी अति बूढा। - वाममार्गी कामी कंजूस अति मूर्ख अत्यंत गरीब बदनाम और अतिशय बूढा
मारने में कुछ भी मनुश्यता बहादुरी नहीं है। - सदा रोगबस संतत क्रोधी।विश्नु विमुख श्रुति संत विरोधी।
तनु पोशक निंदक अघ खानी।जीवत सब सम चैदह प्रानी। - सर्वदा रोगी रहने बाला लगातार क्रोध करने बाला भगवान विश्नु से प्रेम नहीं रखने बाला
बेद पुराण तथा संत महात्माअेंा का बिरोधी केवल अपने शरीर का भरण पोशन करने बाला
सदा दूसरों की निंदा करने बाला और महान पापी-ये सब चैदह तरह के लोग जिन्दा हीं मृतक समान हैं। - काल दंड गहि काहु न मारा।हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।
निकट काल जेहिं आबत सांई।तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहिं नाई। - काल मृत्यु लाठी लेकर किसी को नहीं मारता।वह धर्म शक्ति बुद्धि और विचार छीन लेता है।
जिसका काल निकट आ गया हो उसे रावण की तरह हीं भ्रम हो जाता है। - साम दाम अरू दंड विभेदा।नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा।
- बेद का कथन है कि साम दाम दण्ड और विभेद का गुण राजा के हृदय में बसते हैं।
- सुत बित नारि भवन परिवारा।होहिं जाहि जग बारहिं बारा।
- पुत्र धन स्त्री मकान और परिवार इस संसार में बार बार होते हैं।
- ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुॅ मन विश्राम
भूत द्रोह रत मोह बस राम विमुख रति काम। - जो जीवों का द्रोही मोह माया के अधीन ईश्वर भक्ति से विमुख और
काम वासना में लिप्त है उसे सपना में भी धन संपत्ति शुभ शकुण और
हृदय मन की शान्ति नहीं हो सकती है। - महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहुॅ सखा मति धीर। - इस जन्म मृत्यु रूपी महान दुर्जन संसार को जो जीत सकता है-वही महान
वीर है और जो स्थिर बुद्धि रूपी रथ पर सवार है-वही ब्यक्ति इसे जीत सकता है। - सेवत विशय विवर्ध जिमि नित नित नूतन मार।
- काम वासना का सेवन करने से उन्हें अधिक भोगने की इच्छा दिनानुदिन बढ़ती हीं जाती है।
- पर हित सरिस धर्म नहि भाई।पर पीड़ा सम नहि अधमाई
निर्नय सकल पुरान बेद कर।कहेउॅ तात जानहिं कोविद नर । - दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नही है और दूसरों को दुख देने के समान कोई पाप नही है।
यही सभी बेदों एवं पुराणों का विचार है। - नर सरीर धरि जे पर पीरा।करहिं ते सहहिं महा भव भीरा।
करहिं मोहवस नर अघ नाना।स्वारथ रत परलोक नसाना। - मनुश्य रूप में जन्म लेकर जो अन्य लोगों को दुख देते हैं उन्हें जन्म मरण का महान तकलीफ सहना पड़ता है।
लोग स्वार्थ के कारण अनेकों पाप करते हैं।इसीसे उनका परलोक भी नाश हो जाता है। - सुनहु तात माया कृत गुन अरू दोस अनेक
गुन यह उभय न देखि अहि देखिअ सो अविवेक। - हे भाई -माया के कारण हीं इस लोक में सब गुण अवगुण के दोस हैं।असल
में ये कुछ भी नही होते हैं।इनको देखना हीं नहीं चाहिये।इन्हें समझना हीं अविवेक है। - एहि तन कर फल विसय न भाई।स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई।
नर तन पाई विशयॅ मन देही।पलटि सुधा ते सठ विस लेहीं। - यह शरीर सांसारिक विसय भोगों के लिये नहीं मिला है।
स्वर्ग का भोग भी कम है तथा अन्ततः दुख देने बाला है।
जो आदमी सांसारिक भोग में मन लगाता है वे मूर्ख अमृत के बदले जहर ले रहे हैं। - जो न तरै भवसागर नर समाज अस पाइ
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ। - जो आदमी प्रभु रूपी साधन पाकर भी इस संसार सागर से नहीं पार लगे वह मूर्ख
मन्दबुद्धि कृतघ्न है जो आत्महत्या करने बाले का फल प्राप्त करता है। - नर सहस्त्र महॅ सुनहुॅ पुरारी।कोउ एक होइ धर्म ब्रत धारी।
धर्मशील कोटिक महॅ कोई।बिशय बिमुख बिराग रत होई। - हजारों लोगों में कोई एक धर्म पर रहने बाला और करोड़ों में कोई एक सांसारिक विशयों से
विरक्त वैराग्य में रहने बाला मनुश्य होता है।कोटि विरक्त मध्य श्रुति कहई।
सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई। - ग्यानवंत कोटिक महॅ कोउ।जीवन मुक्त सकृत जग सोउ।
शास्त्र का कहना है कि करोड़ों विरक्तों मे कोई एक हीं वास्तविक ज्ञान प्राप्त - करता है और करोड़ों ज्ञानियों मे कोई एक ही जीवनमुक्त विरले हीं संसार में पाये जाते हैं।
- तिन सहस्त्र महुॅ सब सुख खानी।दुर्लभ ब्रह्म लीन विग्यानी।
धर्मशील विरक्त अरू ग्यानी।जीवन मुक्त ब्रह्म पर ग्यानी। - हजारों जीवनमुक्त लोगों में भी सब सुखों की खान ब्रह्मलीन विज्ञानवान लोग
और भी दुर्लभ हैं।धर्मात्मा वैरागी ज्ञानी जीवनमुक्त और ब्रह्मलीन प्राणी तो अत्यंत दुर्लभ होते हैं। - जो अति आतप ब्याकुल होईं।तरू छाया सुख जानई सोईं
- धूप से ब्याकुल आदमी हीं बृक्ष की छाया का सुख जान सकता है।
- मोह न अंध कीन्ह केहि केही।को जग काम नचाव न जेही।
तृश्ना केहि न कीन्ह बौराहा।केहि कर हृदय क्रोध नहि दाहा। - किस आदमी को मोह ने अंधा नहीं किया है।संसार में काम वासना ने किसे नहीं नचाया है।
इच्छाओं ने किसे नहीं मतवाला बनाया है।क्रोध ने किसके हृदय को नहीं जलाया है। - ग्यानी तापस सूर कवि कोविद गुन आगार
केहि के लोभ विडंवना कीन्हि न एहि संसार। - संसार में कौन ज्ञानी तपस्वी बीर कवि विद्वान और गुणों का भंडारी है जिसे लोभ ने बर्बाद न किया हो।
- श्रीमद वक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि
मृग लोचनि के नैन सर को अस लागि न जाहि। - लक्ष्मी के अहंकार ने किसे टेढ़ा और प्रभुता अधिकार ने किसे बहरा नही किया है।
युवती स्त्री के नयन वाण से कौन पुरूश बच सका है। - गुन कृत सन्यपात नहि केही।कोउ न मान मद तजेउ निबेही।
जोबन ज्वर केहि नहि बलकाबा।ममता केहि कर जस न नसाबा। - अपने गुणों का बुखार किसे नही चढ़ता।किसी को मान और मद ने नही छोड़ा है।
यौवन के बुखार से कौन अपना नियंत्रण नही खोया है।
ममता ने किसकी प्रतिश्ठा का नाश नही किया है। - मच्छर कहि कलंक न लाबा।काहि न सोक समीर डोलाबा।
चिंता साॅपिनि को नहि खाया ।को जग जाहि न ब्यापी माया।
डाह इरशया ने किसे कलंकित नही किया है।शोक की लहर ने किसे नही हिलाया है।
चिन्ता के साॅप ने किसे नही खाया है।संसार में ऐसा कोइ नही जिसे माया ने नही प्रभावित किया है। - कीट मनोरथ दारू सरीरा।जेहि न लाग घुन को अस धीरा।
सुत वित लोक ईसना तीनी।केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी। - मन की इच्छायें शरीर रूपी लकड़ीके घुन का कीड़ा है।ऐसा कौन बीर है जिसे यह घुन न लगा हो।
पुत्र धन इज्जत की तीन प्रबल इच्छायें किसकी बुद्धि को नही बिगाड़ा है। - ब्यापि रहेउ संसार महुॅ माया कटक प्रचंड
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाखंड। - सम्पूर्ण जगत में माया छायी हुई है।काम क्रोध और लोभ माया रूपी
सेना के सेनापति हैं और घमंड छल और पाखंड उसके सैनिक हैं। - सुनहु राम कर सहज सुभाउ।जन अभिमान न राखहिं काउ।
संसृत मूल सूलप्रद नाना।सकल सोक दायक अभिमाना। - यह प्रभु का स्वभाव है कि वे किसी भक्त में अभिमान नही रहने देते हैं।
यह घमंड जन्म मृत्यु रूपी संसार की जड़ है।यह अनेकों तकलीफों और सभी दुखों का दाता है। - जौं सब कें रह ग्यान एकरस।ईश्वर जीवहिं भेद कहहु कस।
मायाबस्य जीव अभिमानी।ईस बस्य माया गुन खानी। - यदि जीवों में पूर्ण ज्ञान हो जाये तो फिर जीव और ईश्वर में भेद क्या रहेगा।
घमंडी जीव माया के अधीन सत्व रज तम तीनों गुणों के खान के कारण ईश्वर के नियंत्रण मे है। - अखिल बिस्व यह मोर उपाया।सब पर मोहि बराबरि दाया।
तिन्ह महॅ जो परिहरि मद माया।भजै मोहि मन बच अरू काया। - यह अखिल संसार प्रभु का पैदा किया हुआ है।अतः सब उनकी समान दया है।
लेकिन इनमें भी जो सब अहंकार और माया छोड़कर मन वचन और शरीर से मुझे भजता है- - पुरूस नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ
सर्वभाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ। - वह पुरूस नपुंसक स्त्री या चर अचर कोई जीव हो छल कपट छोड़कर
जो पूरे भाव से मुझे भजता है-वह परमात्मा को बहुत प्रिय है। - बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ विराग बिनु
गावहिं बेद पुरान सुखकि लहिअ हरि भगति बिनु। - गुरू के बिना ज्ञान और वैराग्य के बिना ज्ञान कदापि नहीं हो सकता।
वेद और पुराण कहते हैं कि प्रभु की भक्ति के बिना सुख कदापि नही हो सकती। - कोउ विश्राम कि पाव तात सहज संतोश बिनु
चलैकि जल बिनु नाव केाटि जतन पचि पचि मरिअ। - स्वभावतः संतोश के बिना शान्ति नही मिल सकती।
करोड़ों उपाय करके मरते रहने पर भी क्या जल के बिना नाव चल सकती है। - बिनु संतोश न काम नसाहीं।काम अछत सुख सपनेहुॅ नाहीं।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा।थल बिहीन तरू कबहुॅ कि जामा। - संतोश बिना इच्छाओं का नाश और इच्छाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता है।
बिना ईश्वर भक्ति के कामनाओं का विनाश नहीं हो सकता जैसे कि बिना धरती क्या पेड़ उग सकता है। - बिनु विज्ञान कि समता आबइ।कोउ अवकास कि नभ बिनु पाबइ।
श्रद्धा बिना धर्म नहि होई।बिनु महि गंध कि पाबइ कोई। - मूल तात्विक ज्ञान बिना समता की भावना नहीं हो सकती।
आकाश के बिना क्या कोई अंत जान सकता है।
श्रद्धा के बिना धर्म नही जैसे कि पृथ्वी के बिना कोई गंध नही मालूम कर सकता है। - बिनु तप तेज कि कर विस्तारा।जल बिनु रस कि होइ संसारा।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई।जिमि बिनु तेज न रूप गोसांई। - तपस्या के बिना तेज नही फैल सकता।जल बिना संसार में रस नही हो सकता है।
विना ज्ञानियों की सेवा के सदाचार नहीं प्राप्त होता है।
बिना तेज के रूप की प्राप्ति नही हो सकती है। - निज सुख बिनु मन होइ कि धीरा।परस कि होइ विहीन समीरा।
कब निउ सिद्धि कि बिनु विस्वासा।बिनु हरि भजन न भव भय नासा।
– निजी सुख बिना मन स्थिर नही हो सकता।वायु तत्व के बिना स्पर्श नही हो सकता।
विश्वास के बिना कोई सिद्धि नही प्राप्त हो सकती है।
बिना ईश्वर की भक्ति के संसार रूपी जन्म मृत्यु का डर नाश नही हो सकता है। - बिनु विस्वास भगति नहि तेहि बिनु द्रवहि न रामु
राम कृपा बिनु सपनेहुॅ जीव न लह विश्राम।
– विश्वास किये बिना भक्ति नही और प्रभु द्रवित होकर कृपा नही करते।ईश्वर
की कृपा बिना हम सपने में भी शान्ति नहीं पा सकते हैं। - अग जग जीव नाग नर देवा।नाथ सकल जगु काल कलेवा।
अंड कटाह अमित लय काटी।कालु सदा दुरति क्रम भारी।
– नाग आदमी देवता सभी चर अचर जीव एवं यह सम्पूर्ण संसार काल का भोजन है।
समस्त ब्रम्हान्डों का विनाश करने बाला काल बड़ा आवश्यक तत्व है। - जेहि ते कछु निज स्वारथ होई।तेहि पर ममता करसब कोई।
– जिसका जिसपर कुछ निजी स्वार्थ होता है उस पर सब कोई प्रेम करते हैं। - पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं
अति नीचहुॅसन प्रीति करिअ जानि निज परम हित।
– वेदों की नीति और सज्जनों का कथन है कि आपको अपना अच्छा हि
तैसी जानकर अति नीच ब्यक्ति से भी प्रेम करना चाहिये। - पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रूचिर
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ।
– रेशम कीड़े से सुन्दर रेशमी वस्त्र बनता है।
इसलिये अत्यधिक अपवित्र कीड़े को भी लोग प्राणों के समान पालते हैं। - भव कि परहिं परमात्मा बिंदक।सुखी कि होहिं कबहुॅ हरि निंदक।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें।अघ कि रहहिं हरि चरित बखाने।
– ईश्वर को जानने बाले जन्म मृत्यु के चक्र में नही पड़ते।
प्रभु की निंदा करने बाले कभी सुखी नही रह सकते।
राज्य बिना नियम नीति के आधार नही रह सकता।
ईश्वर के चरित्र का वर्णन कहने सुनने से पाप का नाश हो जाता है। - पावन जस कि पुन्य बिनु होई।बिनु अघ अजस कि पावई कोई।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना।जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना।
– विना पुण्य के पवित्र यश प्रतिश्ठा नही मिल सकती।
बिना पाप के अपयश नहीं मिल सकता है।ई्रश्वर भक्ति के समान दूसरा लाभ नही है।
ऐसा बेद पुराण सभी धर्मग्रंथ कहते हैं। - अघ कि पिसुनता सम कछु आना।धर्म कि दया सरिस हरि जाना।
– चुगलखोरी के समान अन्य कोई पाप नही है।दया के समान दूसरा कोई धर्म नही है। - क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान।
– बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध नही होता और बिना अज्ञान के द्वैत बुद्धि नही हो सकती।
माया के बशीभूत जड़ जीव क्या कभी ईश्वर के समानहो सकता है। - कबहुॅ कि दुख सब कर हित ताकें।तेहि कि दरिद्र परसमनि जाकें।
परद्रोही की होहिं निसंका।कामी पुनि कि रहहिं अकलंका।
– सबकी भलाई चाहने से कभी दुख नही हो सकता।
पारसमणि के स्वामी के पास गरीबी नही रह सकती।
दूसरों से बिरोध करने बाले कभी भयमुक्त नही रह सकते।
कामी पुरूश कभी कलंक रहित नही रह सकता है। - बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें।कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चीन्हें।
काहू सुमति कि खल संग जामी।सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।
– ब्राम्हण का अहित करने पर बंश का नाश होता है।
बिना आत्मज्ञान के अनासक्ति पूर्वक कर्म नही हो सकता।
दुश्ट की संगति से सुबुद्धि नही उत्पन्न हो सकती है।
परस्त्री गमन करने बालों को उत्तम गति नही मिल सकती है।