वीर रस कविता ➜ Veer Ras Kavita | VirRas Poem :

वीर रस कविता – Veer Ras Kavitaवीर रस कविता | Veer Ras Kavita | VirRas Poem

  • वीर रस की कविता – मेरे देश के लाल
  • विजयी के सदृश जियो रे
  • तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

  • 1st Veer Ras Kavita
    हाँ इस देश का वासी हूँ, इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा 
    – आँचल वर्मा | वीर रस की कविता |
    हाँ इस देश का वासी हूँ,…इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा
    जीने का दम रखता हूँ, तो मरकर भी दिखलाऊंगा ।।
    नज़र उठा कर न देखना, ऐ दुश्मन मेरे देश को
    मरूँगा मैं जरूर पर… तुझे मार कर हीं जाऊंगा ।।
    कसम मुझे इस माटी की, कुछ ऐसा मैं कर जाऊंगा
    हाँ इस देश का वासी हूँ, इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा ।।
    आशिक़ तुझे मिले होंगे बहुत, पर मैं ऐसा कहलाऊंगा
    सनम होगा मेरा वतन और मैं दीवाना कहलाऊंगा ।।
    माया में फंसकर तो मरता हीं है हर कोई
    पर तिरंगे को कफ़न बना कर मैं शहीद कहलाऊंगा ।।
    हाँ इस देश का वासी हूँ, इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा ।
    मेरे हौसले न तोड़ पाओगे तुम, क्योंकि मेरी शहादत हीं अब मेरा धर्म है ।।
    सीमा पर डटकर खड़ा हूँ, क्योंकि ये मेरा वतन है
    ऐ मेरे देश के नौजवानों अब आंसू न बहाओ तुम ।।
    सेनानियों की शाहदत का अब कर्ज चुकाओ तुम
    हासिल करो विश्वास तुम, करो देश के दर्द का एहसास तुम ।।
    सपना हो हिन्द का सच, दुश्मनों का करो विनाश तुम
    उठो तुम भी और मेरे साथ कहो, कुछ ऐसा मैं भी कर जाऊंगा ।।
    हाँ इस देश का वासी हूँ, इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा
    ऐ देश के दुश्मनों ठहर जाओ…. संभल जाओ ।।
    मैं इस देश का वासी हूँ, अब चुप नहीं रह जाऊंगा
    आंच आई मेरे देश पर तो खून मैं बहा दूंगा ।।
    क्योंकि अब बहुत हुआ, अब मैं चुप नहीं रह जाऊंगा
    हाँ इस देश का वासी हूँ, इस माटी का क़र्ज़ चुकाऊंगा ।।
    खून खौलता है मेरा, जब वतन पर कोई आंच आती है
    कतरा कतरा बहा दूंगा, फिर दिल से आवाज आती है ।।
    इस माटी का बेटा हूँ मैं, इस माटी में ही मिल जाऊंगा
    आँख उठा के देखे कोई, सबको मार गिराऊंगा ।।
    भारत का मैं वासी हूँ, अब चुप नहीं रह पाउँगा
    अब चुप नहीं रह पाउँगा, अब चुप नहीं रह पाउँगा ।।

  • 2nd Veer Ras Kavita
    मेरे देश के लाल – 
    बालकवि वैरागी | वीर रस की कविता |
    पराधीनता को जहाँ समझा श्राप महान
    कण-कण के खातिर जहाँ हुए कोटि बलिदान
    मरना पर झुकना नहीं, मिला जिसे वरदान
    सुनो-सुनो उस देश की शूर-वीर संतान
    आन-मान अभिमान की धरती पैदा करती दीवाने
    मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
    दूध-दही की नदियां जिसके आँचल में कलकल करतीं
    हीरा, पन्ना, माणिक से है पटी जहां की शुभ धरती
    हल की नोंकें जिस धरती की मोती से मांगें भरतीं
    उच्च हिमालय के शिखरों पर जिसकी ऊँची ध्वजा फहरती
    रखवाले ऐसी धरती के हाथ बढ़ाना क्या जाने
    मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
    आज़ादी अधिकार सभी का जहाँ बोलते सेनानी
    विश्व शांति के गीत सुनाती जहाँ चुनरिया ये धानी
    मेघ साँवले बरसाते हैं जहाँ अहिंसा का पानी
    अपनी मांगें पोंछ डालती हंसते-हंसते कल्याणी
    ऐसी भारत माँ के बेटे मान गँवाना क्या जाने
    मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।
    जहाँ पढाया जाता केवल माँ की ख़ातिर मर जाना
    जहाँ सिखाया जाता केवल करके अपना वचन निभाना
    जियो शान से मरो शान से जहाँ का है कौमी गाना
    बच्चा-बच्चा पहने रहता जहाँ शहीदों का बाना
    उस धरती के अमर सिपाही पीठ दिखाना क्या जाने
    मेरे देश के लाल हठीले शीश झुकाना क्या जाने।

  • 3rd Veer Ras Kavita
    विजयी के सदृश जियो रे –
    रामधारी सिंह दिनकर | वीर रस की कविता |
    वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
    चट्टानों की छाती से दूध निकालो
    है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
    पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
    चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
    योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!
    जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
    चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
    सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
    ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
    अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
    गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!
    जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
    भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
    है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
    वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है
    उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
    तलवार प्रेम से और तेज होती है!
    छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
    मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
    दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
    मरता है जो एक ही बार मरता है
    तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
    जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!
    स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
    बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है
    वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
    जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!
    जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
    कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
    नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
    वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है
    चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
    धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!
    उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
    सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
    विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
    जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है
    सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
    पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

  • 4th Veer Ras Kavita
    तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार – शिव मंगल सिंह सुमन | वीर रस की कविता |
    तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
    आज सिन्धु ने विष उगला है
    लहरों का यौवन मचला है
    आज हृदय में और सिन्धु में
    साथ उठा है ज्वार
    तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
    लहरों के स्वर में कुछ बोलो
    इस अंधड में साहस तोलो
    कभी-कभी मिलता जीवन में
    तूफानों का प्यार
    तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
    यह असीम, निज सीमा जाने
    सागर भी तो यह पहचाने
    मिट्टी के पुतले मानव ने
    कभी न मानी हार
    तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
    सागर की अपनी क्षमता है
    पर माँझी भी कब थकता है
    जब तक साँसों में स्पन्दन है
    उसका हाथ नहीं रुकता है
    इसके ही बल पर कर डाले
    सातों सागर पार
    तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
  • 5th Veer Ras Kavita
    वीरों का कैसा हो वसंत – 
    सुभद्राकुमारी चौहान | वीर रस की कविता | आधुनिक काल
    आ रही हिमालय से पुकार
    है उदधि गरजता बार बार
    प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
    सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
    वीरों का कैसा हो वसंतफूली सरसों ने दिया रंग
    मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
    वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
    है वीर देश में किन्तु कंत
    वीरों का कैसा हो वसंत
    भर रही कोकिला इधर तान
    मारू बाजे पर उधर गान
    है रंग और रण का विधान;
    मिलने को आए आदि अंत
    वीरों का कैसा हो वसंत
    गलबाहें हों या कृपाण
    चलचितवन हो या धनुषबाण
    हो रसविलास या दलितत्राण;
    अब यही समस्या है दुरंत
    वीरों का कैसा हो वसंत
    कह दे अतीत अब मौन त्याग
    लंके तुझमें क्यों लगी आग
    ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;
    बतला अपने अनुभव अनंत
    वीरों का कैसा हो वसंत
    हल्दीघाटी के शिला खण्ड
    ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
    राणा ताना का कर घमंड;
    दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
    वीरों का कैसा हो वसंत
    भूषण अथवा कवि चंद नहीं
    बिजली भर दे वह छन्द नहीं
    है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
    फिर हमें बताए कौन हन्त
    वीरों का कैसा हो वसंत
  • 6th Veer Ras Kavita
    कलम, आज उनकी जय बोल – 
    रामधारी सिंह ‘दिनकर’ | वीर रस की कविता | आधुनिक काल
    जो अगणित लघु दीप हमारे,
    तूफ़ानों में एक किनारे,
    जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
    मांगा नहीं स्नेह मुँह खोल।
    कलम, आज उनकी जय बोल।
    पीकर जिनकी लाल शिखाएं,
    उगल रही सौ लपट दिशाएं,
    जिनके सिंहनाद से सहमी,
    धरती रही अभी तक डोल।
    कलम, आज उनकी जय बोल।
    अंधा चकाचौंध का मारा,
    क्या जाने इतिहास बेचारा,
    साखी हैं उनकी महिमा के,
    सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल।
    कलम, आज उनकी जय बोल।
  • 7th Veer Ras Kavita
    शक्ति और क्षमा – 
    रामधारी सिंह ‘दिनकर’ | वीर रस की कविता | आधुनिक काल
    क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
    सबका लिया सहारा
    पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
    कहो, कहाँ, कब हारा?
    क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
    तुम हुये विनत जितना ही
    दुष्ट कौरवों ने तुमको
    कायर समझा उतना ही।
    अत्याचार सहन करने का
    कुफल यही होता है
    पौरुष का आतंक मनुज
    कोमल होकर खोता है।
    क्षमा शोभती उस भुजंग को
    जिसके पास गरल हो
    उसको क्या जो दंतहीन
    विषरहित, विनीत, सरल हो।
    तीन दिवस तक पंथ मांगते
    रघुपति सिन्धु किनारे,
    बैठे पढ़ते रहे छन्द
    अनुनय के प्यारे-प्यारे।
    उत्तर में जब एक नाद भी
    उठा नहीं सागर से
    उठी अधीर धधक पौरुष की
    आग राम के शर से।
    सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
    करता आ गिरा शरण में
    चरण पूज दासता ग्रहण की
    बँधा मूढ़ बन्धन में।
    सच पूछो, तो शर में ही
    बसती है दीप्ति विनय की
    सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
    जिसमें शक्ति विजय की।
    सहनशीलता, क्षमा, दया को
    तभी पूजता जग है
    बल का दर्प चमकता उसके
    पीछे जब जगमग है।
  • 8th Veer Ras Kavita
    शक्ति और क्षमा  – रामधारी सिंह ‘दिनकर’ | वीर रस की कविता | आधुनिक काल
    क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
    सबका लिया सहारा
    पर नर व्याघ्र सुयोधन तुमसे
    कहो, कहाँ, कब हारा?
    क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
    तुम हुये विनत जितना ही
    दुष्ट कौरवों ने तुमको
    कायर समझा उतना ही।
    अत्याचार सहन करने का
    कुफल यही होता है
    पौरुष का आतंक मनुज
    कोमल होकर खोता है।
    क्षमा शोभती उस भुजंग को
    जिसके पास गरल हो
    उसको क्या जो दंतहीन
    विषरहित, विनीत, सरल हो।
    तीन दिवस तक पंथ मांगते
    रघुपति सिन्धु किनारे,
    बैठे पढ़ते रहे छन्द
    अनुनय के प्यारे-प्यारे।
    उत्तर में जब एक नाद भी
    उठा नहीं सागर से
    उठी अधीर धधक पौरुष की
    आग राम के शर से।
    सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
    करता आ गिरा शरण में
    चरण पूज दासता ग्रहण की
    बँधा मूढ़ बन्धन में।
    सच पूछो, तो शर में ही
    बसती है दीप्ति विनय की
    सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
    जिसमें शक्ति विजय की।
    सहनशीलता, क्षमा, दया को
    तभी पूजता जग है
    बल का दर्प चमकता उसके
    पीछे जब जगमग है।वीर तुम बढ़े चलो
    द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी | वीर रस | आधुनिक काल
    वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
    हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
    ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
    वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
    सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
    तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
    वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
    प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
    सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
    वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
    एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
    मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये
    वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
    अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
    यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
    वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
  • 9th Veer Ras Kavita
    वीरांगना – केदारनाथ अग्रवाल | वीर रस की कविता | आधुनिक काल
    मैंने उसको
    जब-जब देखा
    लोहा देखा
    लोहे जैसा-
    तपते देखा-
    गलते देखा-
    ढलते देखा
    मैंने उसको
    गोली जैसा
    चलते देखा।
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